SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टांगहृदये । ( २२८ ) सूख जाता है, ऐसे स्थान को ही शल्य वाला जानना चाहिये । मांसादि में नष्ट शल्यका परिज्ञान । मांसप्रनष्टं संशुद्धया कर्शनाच्छलथतां गतम् क्षोभाद्रागादिभिः शल्य लक्षयत् तद्वदेव च । पहिये के रथ में बैठाकर घोड़े जोत कर ऊंचे नीचे मार्गों में होकर स्थानान्तर को लेजाय तो रथ के क्षोभ से शल्य का स्थान मालूम हो जायगा । पेश्यस्थिसंधिकोष्ठेषु नष्टम् मर्मगत शल्य की परीक्षा का पृथकू वर्णन नहीं किया गया है क्योंकि मर्म मांअस्थिषु लक्षयेत् ॥ १३ ॥ सादि संश्रित हैं, इसलिये मांसादिगत शल्यां अस्थनामभ्यंजन स्वेद बंधपीडनमर्दनैः । की जो परीक्षा पहिले कही गई है उसी के प्रसारणाकुंचनतः संधिनष्टं तथाऽस्थिवत् ॥ अनुसार मर्मगत शल्यों की पररीक्षा भी जान नष्टे स्नायुशिरा स्रोतो धमनिष्वसमे पथि । ली जाती है । अश्वयुक्तं रथं खण्डचकमारोप्य रोगिणम् ॥ शीघ्रं नयेत्ततस्तस्य संरभाच्छल्यमादिशेत् । मर्मनष्टं पृथनोक्तं तेषां मांसादिसंश्रयात् ॥ अर्थ - जो शल्य मांस में टूटकर दिखाई न देता हो तो वह स्थान वमनविरेचनादि संशुद्धिरूप कर्षण क्रियाओं द्वारा शिथिल होजाता है अथवा अनेक प्रकार के क्षोभ, वेदना और ललाई द्वारा वह स्थान पहुंचाना जाता है । पेशी, अस्थि, संधि और कोष्ठ में गये हुए अदृष्ट शल्य की परीक्षा भी इसी रीति से होती है । प्रसा अस्थि में टूटा हुआ अदृश्य शल्य अभ्यंग, स्वेदन, बंधन, पीडन, मर्दन, रण ( पसारना ), आकुंचन ( सकोडना ) द्वारा जाना जाता है । संधि में नष्ट शल्य की परीक्षा अस्थिगत शल्यकी रीति से की जाती है । स्नायु, शिरा, स्रोत, और धमनी में टूटे हुए अदृश्य शल्यका स्थान पहुंचानने की रीति यह है कि रोगी को टूटे हुए Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २८ शल्प स्थान की सामान्य परीक्षा | सामान्येन सशल्यं तु क्षोभिण्याक्रिययासस्क् अर्थ- सामान्य रीति से श्वास के खींचने निकालने और प्राणायामादिक क्षोभ उत्पन्न करनेवाली क्रियाओं से जहां दर्द होने लगता है वही शल्य का स्थान जान है 1 लिया जाता अदृष्टशल्प की आकृति । वृत्तं पृथु चतुष्कोण त्रिधुटं च समासतः १७ अदृश्यशल्य संस्थानं व्रणाकृत्या विभावयेत् । अर्थ - आकृति से अर्थात् क्षतका मुख गोल है स्थूल है, चतुष्कोण है कि त्रिकोण है, इन बातों को देखकर अदृष्ट शल्य की कृति पहचानी जाती है । For Private And Personal Use Only शल्याकर्षण के उपाय | अर्वाचीनपराचीने निर्हरेत्तद्विपर्ययात् । तेषामाहरणोपाय प्रतिलोमानुलोमकौ १८ ॥ सुखाहार्य यतश्छित्वा ततस्तिर्यग्गतं हरेत् ॥ अर्थ-अदृश्य शल्यों के निकालने के प्रतिलोम और अनुलोम दो उपाय हैं। ओंधे बा सांधे मुखों से प्रविष्ट हुए शहयों को विपरीत
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy