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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ ० १३ www.kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । 1 का दोष के साथ अतियोग होजाने के कारण अच्छा फल न मिलकर केवल हानि होती है । वर्षा ऋतु में अति वृष्टि होने से पृथ्वी में तरी घुसजाती है, अग्नि मंद पड़ जाती है, तथा आदान काल होने के कारण शरीर भी दुर्बल होजाता है । उस समय औषध भी पानी पी पी कर अल्पवीर्य हो जाती हैं और पृथ्वी की बाष्प ( अवखरात ) लगने से जल भी जाती है, इसलिये ऐसी औषध का दोष के साथ अयोग हो जाता हैं और गुण के बदले अवगुण करती है और शीत ऋतु में अत्यन्त ठंड पड़ने के कारण शरीर अति वातविष्ट स्निग्ध और गुरु दोष युक्त होजाता है । और उष्णस्त्रभाववाली औषध भी जाड़ा मारने के कारण मंदी होजाती हैं और दोष के साथ उन का अयोग होजाता है । इन हेतुओं से अति ग्रीष्म, अति दृष्टि और अति शी के दिनों में मनविरेचनादि संशोधन औषधों का प्रयोग करना उचित नहीं है । इस काम के लिये संधिकाल ही उचित समय है । शोधन का अन्यकाळ | स्वस्थवृत्तमभिप्रेत्य व्याव्याधिवशेनतु ॥ अर्थ- ऊपर जो दोष के संशोधनका काल कहागया है, वह उसी के लिये है जि सका शरीर निरोग है, किन्तु रोगीपुरुष के दोषका संशोधन काल तो रोगकी अवस्था पर निर्भर है । ( १२९ ) / अर्थ - अत्यन्त जाडे, गरमी वा वर्षा का में रोग उत्पन्न होगया हो और वमन विरेचन द्वारा संशोधन की आवश्यकताहो तो शीत, उष्ण और वृष्टिका यथायथ प्रतीकार अर्थात् कृत्रिम ऋतु के गुण उत्पादन कर के संशोधनादि रूप चिकित्सा करना चाहि ये । परन्तु चिकित्साका काल कदापि हाथ से न जानेदे । क्योकि रोगके बढ जाने से रोगी के प्राणनाश होने की संभावना हैं । कृत्रिम ऋतुगणका यह प्रयोजन है कि यदि सन्त ऋतु में रोग होनेपर संशोधनकी आवश्यकता है तो रोगी को गर्भगृह में रक्ख जहां ठंडी हवा प्रवेश न कर सके, अग्नि से घरको गरम रक्खै । ग्रीष्म ऋतुमें रोगी को ऐसे स्थान में रक्खे जहां फव्वारे चलते हों मकान शीतलहो जिसमें गरमी का तापमालून न पडे । इसी तरह वर्षा ऋतु भी बर्षा की सरदी से बचने का उपाय करे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औषधका समय | युज्पादनन्नमन्नादौ मध्येऽते फवलांतरे 1 मासे मासे मुहः खानं सामुद्रं निशि वौषधम् अर्थ - औषध सेवनके ये दश काल हैं । यथा-- ( १ ) अनन्न [ जो औषध खाई जाती है उसके पचने के पीछे अन्नखाना ) ( २ ) अन्नादि ( औषध के सेवन करतेही भोजन करना ), ( ३ ) मध्यकाल ( आहा रके बीच में औषध सेवन ), [४] अंतकाल ( भोजन करके औषध सेवन ), (५) कलांतर [ एक प्रास खाकर औषध अतिशीतोष्णकाल में कर्तव्य | कृत्वा शीतोष्णीनां प्रतीकारंयथायथम् । प्रवेजयोत्कियां प्राप्त क्रियाकाळ महापयेत् | लेलेना फिर दूसरा प्रास खाना ], [ ६ १७ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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