SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२८) अष्टांगहृदये। विधिपूर्वक स्वेदन प्रयोग द्वारा आमदोष को | जो दोष अच्छी तरह न निकलते हों तो पकावै फिर दोषकी शुद्धि करने के समय ययोक्त पाचन द्रव्य द्वारा उनका परिपाक रोगीकी शक्तिके अनुसार मृदु, मध्य बा करै अथवा बाहर निकालने का उपाय करै। तीक्ष्ण वमन विरेचन द्वारा उनको पासवाले दोषशोधन का काल ।। मार्ग द्वारा बाहर निकालनेका यत्नकरै। श्रावणे कार्तिके चैत्रे मासि साधारणेमात् दोषोंके निकटवर्ती स्थान । ग्रीष्मवर्षाहिमाचतात् वायवादीनाशु निर्हरेत् ___ अर्थ - ग्रीष्मऋतु में संचित हुए वायु को हंत्याशुयुक्तं वक्त्रेण द्रव्यमामाशयान्मलान् घ्राणेन चोर्ध्वजत्रूत्थान पक्काधानादेन च ॥ श्रावण में निकाले । वर्षा ऋत में संचित ___ अर्थ-मुखके द्वारा योजना की हुई औ हुए पित्त को कार्तिक में शरद ऋतुम शोधन षध मुखमार्ग अर्थात् वमन से आमाशय करै । हेमंत और शिशिर ऋतु में संचित कफ को चैत्र के महिने में वसंत ऋतु में स्थ दोषको दूर करती हैं | नासिका द्वारा शोधन करै । ये दोष की शुद्धि का साधायोजना की हुई औषध कंठ से ऊपरके रोगों को दूरकरती है । और गुदा द्वारा योजना रण काल है. इस लिये इस समय में शोधन कीहुई औषध गुदामार्ग से पक्वाशयस्थ दो करना उचित है । पोको निकालदेती है। संचप काल में दोष शुद्धि का निषेध । अत्युष्णवर्षशीता हि ग्रीष्मवाहिमागमाः। दोषों के रोकने का निषेध ।। संधौ साधारणेतेषांदुष्टान्दोषानावशोधयेत् उक्लियानध ऊर्यदान चामान्बहतःस्वयम् अर्थ-ग्रीष्म काल में अत्यन्त गर्मी पडती धारयेदोषधैर्दोषान् विधृतास्ते हि रोगा। है, वर्षा में अत्यन्त वर्षा होती है और शीत अर्थ-जो आम दोष अपने आप ऊपर वा नीचे के मार्ग द्वारा निकलने लग गये । ऋतु में ठंड अधिक पडती है । इस लिये हो तो रोकने की दवा देकर उनका रोकना इन ऋतुओं के संधिकाल में साधारण अच्छा नहीं होता क्योंकि वहिर्गमनोन्मुख काल होता है उस समय विगडे हुए दोष दोष रोकने से रोगों को उत्पन्न करते हैं । का निकालना उचित है । इस का कारण यह है कि ग्रीष्म काल में वलका आदान वहिर्गमनोन्मुख दोषों में कर्तव्य ।। काल होने से शरीर ग्लानियुक्त होजाता है प्रवृत्तान् प्रागतो दोषानुपेक्षेत हिताशिनः ॥ विवद्धान पाचनैस्तैस्तैः पाचयेन्निहरेत वा। और सूर्य की प्रचंड किरणों से संतप्त होकर अर्थ - जब दोष बाहर की ओर निकलने पिपासा और क्लान्ति से व्याकुल हुआ मनुष्य में प्रवृत होगये हों तब प्रथम ही हितकारी दोषों के अत्यन्त लीन होजाने के कारण भोजन करता हुआ उनकी उपेक्षा करै शिथिल शरीर होजाता है ! औषधभी सूर्य अर्थात् किसी प्रकार की रोकने वाली औषध की प्रखर किरणों से संतप्त होकर उष्ण - न देकर केवल हितकारी भोजन करै । और । और तीक्ष्ण हो जाती हैं, इसलिये औषध For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy