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अ५
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३६९ ] ' '
ऊर्वविइभ्रंशसंशोषावधश्छर्दिश्च कोष्ठगे। त की अधिकतासे से पांव, कंधे और हथेली तिर्यस्थे पार्श्वरुंग्दोषे संधिगे भवति ज्वरः में दाह, अतिसार, रुधिरकी वमन, मुखदुर्गरूपाण्यकादशैतानि जायते राजयाश्मिणः ।। अर्थ-राजयक्ष्मामें दोष के ऊर्ध्वगमन
धि, ज्वर और मद होते हैं । कफसे अरुचि, करने से पीनस, श्वाप्स, खांसी, स्कंधशूल,
वमन, खांसी, शिर और देहमें भारापन, प्र
सेक, पीनस, श्वास, स्वरमें शिथिलता और शिरःशूल, स्वरभंग और अरुचि, ये रोग
मंदाग्नि होते हैं। उपस्थित होते हैं । दोषके अधोगमन करने
धातुक्षय में युक्ति । पर मलभेद और मलशोष ये दो उपद्रव | दोषैर्मदानलत्वेन सोपलेपैः कफोल्बणैः। होते हैं । दोपके कोष्ठमें स्थित होनेपर वमन स्रोतोमुखेषु रुद्धेषु धातूष्मस्वल्पकेषु च ॥ होती है । तिर्यग्गमन करनेपर पसली में दर्द
विदह्यमानःस्वस्थाने रसस्तांस्तानुपद्रवान् ।
कुर्यादगच्छन्मांसादानस्सृक चोर्चे प्रधावति और संधिमें गमन करने पर ज्वर उत्पन्न
पच्यते कोष्ट एवान्नमन्नपत्रिवचाऽस्य यत् । होता है । राजयक्ष्मामें ये ग्यारहरूप उत्पन्न
| प्रायोऽस्मान्मलतांयातं नैवालं धातुपुष्टये ॥ होते हैं।
___ अर्थ-कफ है प्रधान जिनमें ऐसे वातादि पीनसादिके सात उपद्रव ।।
तीनों दोषों द्वार! स्रोतों के मुखों को रुद्ध तेषामुपद्रवान् विद्यात्कण्ठोध्वंससमुरोरुजम् | और उपलिप्त करदेता है अर्थात् कफ की जुभांगमर्दनिष्ठीववन्हिसादास्यपूर्तिताः ।। अधिकतासे स्रोतोंके मुख रुक जाते हैं और
अर्थ-ऊपर कहे हुए ग्यारह पीनसादि रूपों कफ से लिहस जाते है, तथा मंदाग्नि के में से कंठ का वैठ जाना, वक्षःस्थल में बेद
कारण धातुओं में ऊष्मा कम होजाती है. ना, जंभाई, अंगमर्द, निष्ठीव, अग्निमांद्य इन हेतुओं में से रस अपने ही स्थान में और मुखदुर्गधि ये सात उपद्रव होते हैं ।
विदह्यमान होकर ऊपर कहेहुए कंठोध्वंसादि __ ग्रंथांतर में उपद्रव के लक्षण ये हैं:- उपद्रवों को करता है और अवरुदताके काव्याधरुपरि यो व्याधिर्भवत्युत्तरकालजः । उपक्र. रण मांसादिमें नहीं जाने पाता है इसी से मबिघाती च स उपद्रव उच्यते ।
उन मांस मेदा आदि की पुष्टिभी नहीं कर बातादिके लक्षण । सकता है । तथा पित्तकारिणी पाकावस्था तत्र वाताच्छिरः पार्श्वशूलमंसांगमर्दनम् ॥ में अच्छी तरह पचकर रक्त बनकर ऊपरको कण्ठोधंसः स्वरभ्रंशः पित्तात्पादांसपाणिषु । दौडता है और मुखके द्वारा बाहर निकल दाहोऽतिसारोऽसृक्छर्दिर्मुखगंधो ज्वरोमदः कफादरोचकश्छर्दिः कासो मू(गगौरवम् ।
जाता है और क्षयीरोगी की मांसादि धातुओं प्रलेकः पीनसःश्वासःस्वरसादोऽल्पवन्हिता की पुष्टि नहीं कर सकता है। दूसरा कारण
अर्थ-इस राजयक्ष्नामें वातकी अधिकता । यह है कि अन्न ग्रामपकाशय में केवल जसे शिरोवेदना, पार्श्वशूल, स्कंधमर्दन, अं. ठराग्नि द्वारा पचता है और धात्वग्नि अल्प गमई, कंठोघंस, और स्वरभ्रंश होते हैं । पि | होनेके कारण उसको नहीं पका सकती है
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