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(३६८)
अष्टांगहृदय ।
अ०५
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यह संपूर्ण रोगों के राजत्व रूपसे विराज- । दृल्लास छर्दिररुचिरश्नतोऽपि बलक्षयः। . मान है, इसलिये इसे रोगराट कहते हैं ।
पाण्योरवेक्षा पादास्यशोफोऽणोरतिशुक्लता
| यावोःप्रमाणजिज्ञासा काये वैभत्स्यदर्शनम् राजयक्ष्मा के हेतु ।
स्त्रीमद्यमांसप्रियता घृणित्वम् मूर्धगुंठनम् ॥ साहसं वेगसंरोधः शुक्रौजः स्नेहसंक्षयः। नखकेशातिवृद्धिश्च स्वप्ने चाभिभवो भवेत्। अन्नपानविधित्यागश्चत्वारस्तस्य हेतवः॥ पतंगकृकलासाहिकपिश्वापदपक्षिभिः ११ ॥
अर्थ-मल्लयुद्धादि कायक और उच्चभा- केशास्थितुषभस्मादिराशौसमधिरोहणम्। षणादि वाचक साहस के कार्य अधोवात | शून्यानां ग्रामदेवनां दर्शन शुष्यतोऽभसः॥ और मलमूत्रादि के उपस्थित वेगों का रो
ज्योतिर्गिरीणां पततांज्वलतांच महीरुहाम्।
अर्थ-जिस मनुष्यके राजयक्ष्मा होनेवाकना, शुक्र, ओज और देहसंबंधी स्नेहका नाश, अन्नपानविधि का अन्यथा सेवन, ये
ला होता है, उसके प्रतिश्याय ( मुख नासा. चार राजयक्ष्मा के उत्पन्न होने के हेतुहैं।
दि से जलस्राव ), छींक, मुखप्रसेक, मुखमें.
मधुरता देहमें शिथिलता, जठराग्नि की मंउक्तचार हेतुओं में वायुकी प्रधानता। तैरुदीर्णोऽनिलः पित्तं कर्फ चोदीर्य सर्वतः।।
दता, पवित्र थाली पात्र और अन्नपानादिमें शरीरसंधीनाविश्य तान् सिराश्च प्रपीडयन् | अपवित्रता देखना, अन्नपानमें प्रायः मक्खी, मुखानि स्रोतसांरुद्धका तथैवातिविवृत्यच।। तिनुका, केश आदि का गिरना, हल्लास, सर्पन्नूमधास्तर्यग्यथास्वं जनयेद्दान् ॥ घमन, अरुचि और भोजन करते करते बल ___ अर्थ-ऊपर कहे हुए चार प्रकार के
की हानि, हााका देखना, पांवों में और मुख हेतुओं द्वारा वायु उदीर्ण होकर पित्त और
में सूजन, आंखों में सफेदी, दोनों बाहुओं कफ को चारों ओर से उदगीरत करके श
| का प्रमाण जाननेकी इच्छ। । शरीरमें भयारीर की संधियों में प्रविष्ट होकर तत्रस्थ
नकता दिखाई देना, स्त्री, मद्य और मांसका सिराओं को प्रपीडन करके स्रोतों के मुखों
अच्छा लगना, घृणित्व, वस्त्र से सिर को रोककर वा अत्यन्त विवृत करके ऊपर, | ढकना, नख और केशों की अत्यन्त वृद्धि, नीचे वा तिरछी ओर को जाकर यथायोग्य स्वप्न में पतंग, किरकेंटा, सर्प, बंदर, सेह रोगों को उत्पन्न करदेता है, अर्थात ऊपर और पक्षियों द्वारा पराभव,बाल, हड्डीयां, की ओर जाकर पीनसादि, नीचे को जाकर | | तुष, और भस्मादि के ढेरके ऊपर चढना, परीषशोष और पुरीषभूश और तिरछी प्राम और देश, सूखे जलाशय, तारागण ओर जाकर पार्श्ववेदना करता है ।
और पर्वतों का पतन, जलते हुए वृक्ष,
इनका देखना ये सब लक्षण राजयक्ष्मा राजयक्षाका पूर्वरूप। रूपंभविष्यतस्तस्य प्रतिश्यायोभ्रशं क्षवः ।
उत्पन्न होने से पहिले होते हैं अर्थात् ये प्रसेको मुखमाधुर्य सदनं वन्हिदेहयोः॥७॥ राजयक्ष्मा के पूर्वरुप हैं। स्थाल्यमत्रानपानादौ शुवावप्यशुचीक्षणम् । रामयक्ष्मा के ग्यारहरूप । मक्षिकातृणकेशादिपातः प्रायोऽनपानयो॥ पीनसश्वासकासांऽसमूर्धस्वररुजोऽरुचिः।
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