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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३७० . अष्टांगहृदय । अ०५ इसलिये मलमूत्र अधिकता से बनजाता है | अर्थ-स्वरभेद छः प्रकार का होता है, और धातुओं की पुष्टि नहीं कर सकता है। यथा-वातज, पित्तज, कफज, त्रिदोषज, यक्षमागेगी का पुरीषाचार जीवन । क्षयज और मेदोज । रसोऽप्यस्य रक्ताय मांसाय कुत एव तु। वातज स्वर भेद के लक्षण । उपस्तब्धः स शकृता केवलं वर्तते क्षयी २२ सत्र क्षामो रूक्षश्चलः स्वरः ॥ २४ ॥ अर्थ-यक्ष्मारोगी के आहार का रस शुकपूर्णाभकण्ठत्वं स्निग्धोष्णोपशयोऽनिलात् जब निकटवर्ती रक्तधातु की ही पुष्टि नहीं ___अर्थ-वातज स्वरभेदमें स्वर क्षीण, रूक्ष कर सकता है तो दूरवर्ती मांसधातु की | और चंचल होजाता है, कंठ में शूकपूर्णता पुष्टि करना असंभव है । यक्ष्मारोगी केवल तथा स्निग्ध और उष्ण उपशय होताहै । पुरीष द्वारा अवष्टंभित होकर प्राण धारण पित्तज स्वरभेद ।। करता है । अर्थात् किंचित् आहार रस से पित्तात्तालुगले दाहः शोष उक्तावसूयनम् ॥ भाप्यायित धातुओं द्वारा शरीर की केवल ____ अर्थ-पित्तज स्वरभेद में तालु और गले धारणा मात्र है। में दाह और शोष होते हैं तथा वोलने में पक्ष्मारोगी का साध्यासाध्य बिचार । | असमर्थता होती है । लिंगेष्वल्पेवपिक्षीणं व्याध्यौषधबलाक्षमम् कफज स्वरभेद । । वर्जयेत् | लिंपन्निव कफात्कण्ठं मन्दः खुरखुरायते । साधयेदेव सर्वेष्वपि ततोऽन्यथा २३॥ स्वरो विबद्धः . अर्थ-जो यक्ष्मारोगी बल और मांस से | अर्थ-कफज स्वरभेद में कफसे कंठ क्षीण हो, और पीनसादि अल्प उपद्रवों से | लिहस जाता है, शब्द बहुत मंदा निकलता । युक्त हो और इसी हेतुसे व्याधि और औ- है, कंठ में खुरखुराहट होती है, बोलने में षध का वल न सह सकता हो उसे असाध्य | स्खलन होता है । समझकर छोड देना चाहिये । त्रिदोषज स्वरभेद । इससे विपरीत होने पर अर्थात् जिसका सर्वैस्तु सलिंगः बल और मांस क्षीण न हुआ हो और इसी | अर्थ-त्रिदोषज स्वरभेद में उक्त तीनों हेतु से व्याधि और औषध का बल सह / दोषों के मिले हुए लक्षण होते हैं । सकता हो ऐसा रोगी यदि पीनसादि सर्व क्षयज स्वरभेद । लक्षणों से युक्त भी हो तोभी रोगी साध्य क्षयात्कषेत् ॥ २६ ॥ होता है। धूमायतीव चात्यर्थम्स्वरभेद के छः प्रकार । ____ अर्थ-क्षयज स्वरमेद में कंठमें विध्वस्तदोषैर्व्यस्तैःसमस्तैश्च क्षयात् षष्टश्च मेदसा ता और नासिकादि से अत्यंत धूआं का सास्वरभेदो भवेत् | निकलना प्रतीत होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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