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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थान भाषायीकासमेत । [३७१] मेदोज स्वरभेद । होती है, सानिपातज अरोचक में विरसता मेदसा श्लेष्मलक्षणः। अर्थात् रसका ज्ञान जाता रहता है। तथा कृच्छ्रलक्ष्याक्षरश्च क्रोध शोकादिजनित अरोचक में बातादि अर्थ-मेदोन स्वरभेद में कफज स्वरभेद जिस दोष का संबंध होता है मुखमें उसी के संपूर्ण लक्षण प्रकुपित होजाते हैं तथा | दोष के अनुसार रसत्व पैदा होता है, जैसे स्वर में अत्यन्त क्षीणता उत्पन्न होजा शोक, भय, काम, लोभ, ईर्ष्यादि से संतप्त ती है। मनमें वात के कोप से मुखमें कसीलापन, स्वरभेद में साध्यासाध्यत्व । क्रोध संतप्त मनमें पित्त के प्रकोप से तिअत्र सर्वैरत्यं च वर्जयेत् ॥ २७ ॥ | क्तता और प्रहसे संतप्त मनमें कफ से अर्थ-इन छ: प्रकार के स्वरभेदों में मधुरता और संनिपातज मनःसंताप में विरचार वातज, पित्तज, कफज और क्षयम साध्य होते हैं और त्रिदोषज और मेदोज सता होती है । असाध्य होते हैं। छर्दि का निदान । ___ अरुचि की उत्पत्ति। छर्दिदोषैः पृथक्सवैर्दिष्टैरर्थेश्च पञ्चमी। उदानो विकृतो दोषान् सर्वानप्यूर्ध्वमस्यति अरोचको भवेहोवैर्जिवादृदयसंश्रयः।। ___अर्थ-छर्दि अर्थात् वमनरोग पांच प्रकार सन्निपातेन मनसः संतापेन च पञ्चमः ॥ अर्थ-जिह्वा और हृदय में आश्रित की होती है, यथा-वातज, पित्तज, पातपित्त और कफ इन तीनों दोषों से, जि. कफज, त्रिदोषज तथा अनभीप्रेत द्विष्ट हवा और हृदय में आश्रित सन्निपात से अर्थों से पांचवीं छर्दि होती है। और क्रोध शोकादि मनके संताप से अरो ___ संपूर्ण प्रकार के वमनरोग में उदानवायु चक रोगकी उत्पीत्त होती है। अरोचक वातपित्त कफको ऊपर को फेंकता है। रोग पांच प्रकार का होता है, तथा वातज छार्द का पूर्वरूप । पित्तज, कफज, सन्निपातज, और मनस्ता तासूत्लशास्थलावण्यप्रसेकारुचयोऽप्रगाः। अर्थ-सब प्रकार के वमनरोगों के पक । इनमें से मनस्तापक अरोचक आगं उत्पन्न होने से पहिले मुखमें नमकीनता, तुज होता है। बातजादि अरोचक के लक्षण । मुखस्राव, अरुचि और उत्क्लेश ( दोषका कषायतिक्तमधुरं वातादिषु मुखंक्रमात् । अपने स्थान से चलना ) ये सव अग्रगामी सर्वोत्थे विरसंशोकक्रोधादिषु यथामलम् ॥ होते हैं। अर्थ-वातादि अरुचि में क्रम से मुख बातज बमन । कषाय, तिक्त और मधुर होता है अर्थात | नाभिपृष्ठं रुजन् वायुः पार्श्वे चाहारमत्क्षिपेत् वातरोचक में मुखमें कषायता, पित्तारोचक ततो विच्छिन्नमल्पाल्पं कषायंफेनिलं वमेत् शब्दोद्गारयुतं कृष्णमच्छं कृच्छ्रेण वेगवत् ॥ में तिक्तता और कफारोचक में मधुरता | कासास्यशोषहन्मूर्धस्वरपाडालमान्वितः। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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