SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाठीकासमेत । क्रियाणां सुकरत्वाय कुर्यादाचूषणाय च । चार कर्णयुक्त वारंग के संग्रहार्थ पंचमुतद्विस्तारपरीणाहदैये स्रोतोनुरोधतः १२ खछिद्रा अर दो कर्ण से युक्त वारंग के __ अर्थ-वस्ति नेत्र के सदृश नाडी यंत्र समूहार्थ त्रिमुखछिद्रा नाडी यंत्र उपयोगी होसछिद्र होते हैं, इन में प्रयोजनानुसार एक ता है । वारंग के प्रमाण के अनुसार नाडी वा भनेक मुख होते हैं । ये कंठादि स्रोतों यंत्रका प्रमाण होताहै । शरादि दंडके प्रवेश में प्रविष्ट हुए शल्यों के निकालने तथा योग्य शिखाके आकार के सदृश कीलक को . उन्हीं स्थानों में होने वाले रोगों के देखने | वारंग कहते हैं। में काम आते हैं । तथा शस्त्रकर्म, क्षारकर्म और अग्निकर्म किये हुए स्थानों की औषध को प्रक्षालन के निमित्त सुगमता करते हैं तथा विषदग्ध अंगों का विष चूसने में उपयोगी होते हैं । इन नाडीयंत्रों की लं शल्पनिर्घातनी नाही। बाई, चौडाई मोटाई, शरीर के स्रोतों के | | पन्नकार्णकया मूर्ध्नि सहशी द्वादशांगुला ॥ चतुर्थसुषिरा नाडीशल्यनिर्घातिनीमता। .अनुसार कल्पना की जाती है । अर्थ-सिरसे ऊपरवाले भागमें जिनका आकार कमल की कणिका के समानहै और बारह अंगुल लंबी और तीन अंगुल के छिद्रवाली नाडी शल्यनिर्घातनी कहलातीहै। शल्यदर्शनार्थ अन्यनाडी। वारंगकर्णसंस्थानाऽनाहदानुरोधतः । नाडीरेवंविधाश्चाऽन्यादृष्टुंशल्यानिकारयत् अर्थ-वारंगकर्ण के संस्थान, आनाह और लंवाई के अनुरोध से और और नाडी यंत्र भी शरीरके भीतर प्रविष्ट हुए शल्योंके अन्यनाडीयंत्र । देखने के लिये बनवाने चाहिये । दशांगुलार्धनाहांतः कण्ठशल्यावलोकने । अर्शीयंत्राणि । नाडीपंचमुखच्छिद्रा चतुष्कर्णस्य संग्रहे ॥ पारंगस्य द्विवर्णस्य त्रिच्छिद्रा तत्प्रमाणतः। अर्शसांगास्तनाकारंयंत्रकं चतुरंगुलम् १६॥ अर्थ-कंठ के भीतर लगे हुए शल्य को | नाहे पंचांगुलं पुंसां प्रमदानां षडंगुलम् । देखने के निमित्त दस अंगुल लंबा और पांच द्विच्छिद्र दर्शने व्याधेरेकच्छिद्रंतु कर्मणि ॥ मध्येऽस्य व्यंगुलं छिद्रमंगुष्ठोदरावस्तृतम् । पांच अंगुल परिधिवाला. नाडीयंत्र उपयोगी | अर्धागुलोच्छ्रितोदृत्तकर्णिकं तु तदूर्ध्वतः॥ होता है। | शम्याख्यं ताहगच्छिद्रं यंत्रमर्शःप्रपडिनम् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy