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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४८) , अशंगट्टदक्ष । अ. २२ पकाये हुए तेलका काल और नस्यद्वारा ) पूतिमुखका उपाय । प्रयोग करे ।। वमिते प्रतिवदने धूमस्तीक्ष्णः सनावनः । समंगाधातकीरोध्रफलिनीपनकै लम् । रक्तज और कफज मुखपाक। धावनं वदनस्यांतश्चूर्णितैरवचूर्णनम् । पित्ताने रक्तपित्तनाकफघ्नश्च कफे विधिः शीतादोपकुशोक्तं च नावनादि च शीलयेत् ___ अर्थ-रक्तपित्तज मुखपाक में रक्तपित्त अर्थ-पूति मुखमें वमन कराकर तीक्ष्ण नाशिनी तथा कफज मुखपाक में कफना- धूम और तीक्ष्ण नस्य का प्रयोग करै । शिनी क्रिया करनी चाहिये । मजीठ, धाय के फूल, लोध, प्रियंगु और पिटिकाओं का विलेखन । पदमाख इनके काढे से मुख को भीतर से लिखेच्छाखादिपत्रैश्च पिटिकाः कठिणाः धोकर इन्हीं का चूर्ण मुखके भीतर बुर कदे स्थिराः ॥ ७६॥ | इसमें शीताद उपकुश में कहा हुआ नस्य अर्थ-सब प्रकार की कठोर और स्थिर | प्रयोग करना चाहिये। कुंसियों को शाकपत्रादि कर्कश पत्रों द्वारा कंठरोगनाशक गोली। विलेखित करे । फलप्रयद्वीपिकिराततिक्त यष्टयासिद्धार्थकटुत्रिकाणि । - सान्निपातिक मुखपाक | मुस्ताहरिद्रादययावशूक-: यथादोषोदयं कुर्यात्सन्निपाते चिकित्सितम् वृक्षाम्लकाम्लानिमवेतसाश्च ॥ अर्थ-सान्निपातिक मुखपाक रोगमें जिस अश्वत्थजम्बाम्रधनंजयत्वक दोषकी अधिकता हो उसी दोष के अनुसार त्वक चाहिमारात्खदिरस्य सारः कायेन तेषां घनतां गतेन चिकित्सा करनी चाहिये । तच्चूर्णयुक्ता गुटिका विधेयाः ॥ नवीन अर्बुद का उपाय । ता धारिता नंति मुखेन नित्यं नवेर्बुदे त्यसंवृद्ध छेदितं प्रतिसारणम् ७७ कंठौष्ठसाल्वादिगदान सुकृच्छ्रान् । स्वर्जिकामागरक्षौद्रैः काथो गंडूष इष्यते ।। विशेषतो रोहिणिकास्यशोषगुडूचीनिंबकल्कोत्थो मधुतैलसमन्वितः७८ गंधान् विदेहाधिपतिप्रणीताः ।। यवानभुक् तीक्ष्णतैलनस्याभ्यंगांस्तथा अर्थ-त्रिफला, चीता, चिरायता, मुल. घरेत् । हटी, सरसों सफेद, त्रिकुटा, मोथा, हलदी, मनोनिया हो और दारुहलदी, जवाखार, विजौरा, अम्लवेत, सरह बढा भी न हो उसको छेदन करके पापल, जामन, आम, अर्जुन वृक्ष की छाल सज्जीखार सोंठ और मधुद्वारा प्रतिसारण अहिंमार की छाल और खैरसार इनके काढे करे । इस में गिलोय और नीम के काढे को गाढा करके इन्हीं के चूर्ण को मिलाकर का गण्डूष धारण करे, और तीक्ष्ण तेल की | गोलियां बनावै । इन गोलियोंको नित्यप्रति नस्य और अभ्यंग हितकारी है, इसमें नौ मुख में धारण करने से कण्ठ ओष्ठ और का पथ्य देना चाहिये। | ताल आदि में होनेवाले अत्यन्त दारुण रोग For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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