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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. २२ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (८१६ - सब शांत हो जाते हैं । रोहिणी, मुखशोष अर्थ-उक्त तेल को देह पर लगाकर और प्रतिमुख रोगों की यह परमोत्तम पंवाड, लोध और दारुहलदी का उबदना औषध है। यह औषध विदेहाधिपति की | करने से व्यंग, नीली और मुख दूषकादि बनाई हुई है। रोग नष्ट होजाते हैं और मुख चन्द्रमा के सर्वरोगनाशक तैल। . | समान कांतिमान होजाता है। मदिरतुलामंवुघटे पक्त्वा तोयेन तेन पिष्टैश्च । अन्य तैल ॥ चंदनोगककुंकुमपरिपेलववालकोशीरैः॥ पलशतं वाणात्तोयघटे सुरतरुरोध्रद्राक्षामंजिष्टाचोचपद्मकविडंगैः पक्त्वारसेऽस्मिश्च पलाधिकैः । खदिरजंबूयष्टयानंतानैः स्पृक्कानतमखकट्फलसूक्ष्मसाध्यामकः सपत्तंगैः॥ रहिमारनीलोत्पलान्वितैः ॥ तैलप्रस्थ विपचेत् तैलनस्थं पाचयेत्श्लक्ष्णपिष्टकर्षाशैः पाननस्यगंडूषैस्तत् । रेभिर्द्रयैर्धारितं तन्मुखेन् ।. हत्वास्ये सर्वगदान जनयति रोगान्सर्वान् हंति वक्रो विशेषागाधी दृशं श्रति च वाराहीम् ॥ स्थैर्य धत्ते दंतपंक्तेश्चलायाः॥ अर्थ-एक तुला नील कुरंटे को एक अर्थ-एक तोला खैर को एक घट जल घट जल में पकावे, चौथाई शेष रहने पर में पका, चौथाई शेष रहने पर उतार कर छानले, इस काढ़े में चन्दन, अगर, कुंकुम, उतार कर छानले, इस काढे में खैर,जामन केवटी मोथा, नेत्रवाला, खस, देवदारू, की छाल, मुलहटी, अनंतमूल, अहिमार, | नीलकमल, प्रत्येक एक पल इनका कल्क लोध, दाख, मनीठ, दालचीनी, पदमाख, और एक प्रस्थ तेल डालकर फिर पकावै बायविडंग, ब्राह्मी, तगर, नखी, कायफल, इस तेल को मुख में धारण करने से सब छोटी इलायची, रोहिषतृण और पतंग प्रत्येक प्रकार के मुखरोग नष्ट होजाते हैं । विशेष एक कर्ष इन सबका कलंक और एक प्रस्थ करके हिलते हुए दांतों को दृढ करने के तेल डालकर फिर पकावै । इस तेल को पान, लिये तो बहुतही उत्तम है । .. नस्य और गंडूष द्वारा मुख में धारण करने से अन्य गुटिका। मुख में होनेवाले सम्पूर्ण रोग नष्ट होजाते हैं। खदिरसारादू द्वे तुले पचेद्वलकात्तुलां इसके सेवनसे गिद्ध के समान तीव्र दृष्टि और चारिमेदसः। शू कर के समान श्रवणशक्ति हो नाती है । घटचतुष्के पादशेषेऽस्मिन् पूते पुनः . मुखका उद्भर्तन । क्वाथनाद् घने ॥ उद्धर्तितं च प्रपुन्नाटरोध्र आक्षिकं क्षिपेत्सुसूक्ष्मं रजः सेव्यांबुपत्तं. दाऊभिरभ्यक्तमनेन बक्रम् । गगैरिकम् । नियंगनीलीमुखदृषिकादि । चंदनद्वयरोध्रपुंड्राहवे यष्टयाहवलाजिनसंजायते चंद्रसमामकांति ॥ द्वयम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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