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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८५०) मष्टांगहृदय । अ० २२ धातकीकट्फद्विनिशात्रिफलाचतुर्मा- अर्थ-ऊपर कहे हुए तेलके काथ द्रव्यों तजोगकम् । को विपर्यय करके अर्थात् एक तुला खैरमुस्तमंजिष्ठान्यग्रोधप्ररोहमांसीयवासकम्। पन्न केलेयसमंगाश्च शीते तस्मिस्तथा सार और दो तुला खैरकी छाल लेकर काढा पालिकां पृथक् । | करे । शेष सब द्रव्य ऊपर लिखे प्रमाण से नातिपत्रिकां सजातीफलां सहलयंगकंको- डालदेवै इस तेलको पकाकर मुख में धारण लकाम् करने से सम्पूर्ण मुखरोग जाते रहते हैं । स्फटिकशुभ्रसुरभिकर्पूरकुडवंचतत्रावपेत्ततः कारयेद्गुटिकाः सदा चैता धार्या मुखे तद्न हिलते हुए दांतों को दृढ करने के लिये दापहाः ॥ ९४ ॥ यह प्रधान औषध है। . अर्थ-दो तुला खरसार और एक तुला अन्य प्रयोग। खैर की छाल इनको चार घट पानी में खदिरेणैता गुटिकाऔटावै, चौथाई शेष रहने पर उतार कर स्तैलमिदं वारिमेदसा प्रथितम् । अनु शीलयन् प्रतिदिन छानले । इस काढे को फिर पकावे और स्वस्थोऽपि दृढद्विजो भवति ॥ गाढा होने पर इसमें खस, नेत्रवाला, पतंग | अर्थ-खैर की उक्त गोलियां तथा अरिगेरू, सफेद चन्दन, रक्तचंदन, लोध, मेद से बनाया हुआ ऊक्त तेल । इनको पुंडरिया, मुलहटी, लाख, रसौत, सौवीरांजन | नित्य प्रति सेवन करने से मनुष्य स्वस्थ धाय के फूल, कायफल, हलदी, दारुहलदी । और दृढदत होजाते हैं। त्रिफला, चातुर्जात, भगर, मोथा, मजीठ, मुखनाशक अन्य प्रयोग । बटके अंकुर, जटामांसी, दुरालभा, पाखं, क्षुद्रागुडू सुमनःप्रवालएलुआ और मजीठ, प्रत्येक दो तोला इनका दावीयवासत्रिफलाकषायः। चूर्ण करके मिला देवे, फिर ठंडा होनेपर क्षोद्रेण युक्तः कवलग्रहोऽय सर्वामयान् वऋगतान्निहति ॥ इसमें जावित्री, जायफल, लोंग, कंकोल, अर्थ-कटेरी, गिलोय, चमेली के अंकुर प्रत्येक एक पल तथा स्फटिक के सदृश | दारूहलदी, दुरालभा, और त्रिफला इनके सफेद कपूर एक कुडव मिलाकर गोलियां काढे में शहत मिलाकर कवल धारण करने बनालेवे । इन गोलियों को मुखमें धारण से सम्पूर्ण मुखरोग जाते रहते हैं । करने से मुखमें होनेवाले संपूर्ण रोग नष्ट उक्तरोगों पर चूर्ण । होजाते हैं। पाठादारूऽत्वकूकुष्ठमुस्तासमंगाअन्य तैल। तिक्तापीतांगारोध्रतेजोवतीनाम् । कायौषधव्यत्यययोजनेन चूर्णः सक्षाद्रो दंतमांसार्तिकंड. तैलं पचेकल्पनयाऽनयैव। पाकस्रावाणां नाशनो घर्षणेन ॥ सर्वास्यरोगोद्धतये तदाहु अर्थ-पाठा, दारुहलदी, दालचीनी, तस्थिरत्वे विदमेव मुख्यम् ॥ | कूठ, नागरमोथा, मजीठ, कुटकी, पातलोध For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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