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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमत। (८५१) - और मालकांगनी इनको पीसकर शहत में | पकाकर गोलियां बनाये । यह रसक्रिया गले सानकर दांतों पर रिगड़ने से दांतके मसूडों के रोगोंको दूर करनेवाली है। का दर्द, खुजली, पाक और स्राव जाते हरीतकी का सेवन। रहते हैं। गोमूत्रक्वथनविलीनविग्रहाणां कालक चूर्ण। पथ्यानां जलमिशिकुष्ठभावितानाम् । गृहधूमताभ्यपाठाव्योषक्षाराग्न्ययोवरा- भत्तारं नरमणवोऽपि वक्ररोगाः तेजोः । श्रोतारं नृपमिव न स्पृशंत्यनर्थाः ॥ मुखदंतगर्लविकारे सक्षौद्रः कालको अर्थ-प्रथम गोमूत्रके काथमें भिगोई हुई . विधार्यश्चूर्णः ॥ फिर नेत्रवाला, सोंफ और कूठ इनकी भावअर्थ--घर का धूआं, रसौत, पाठा, ना दी हुई हरडका सेवन करने वाले मनुष्य त्रिकुटा, जयाखार, चीता, अगर, त्रिफला के मुखको किचिन्मात्र भी मुखरोग स्पर्श और मालकांगनी इन को पीसकर शहत में | नहीं कर सकते हैं, जैसे मंत्रियों की युक्तिमिलाकर मुख में धारण करने से मुख दांत पूर्वक वातों को सुननेवाले राजा के अनर्थ और गलगण्डादि रोग जाते रहते हैं । इस स्पर्श नहीं कर सकते हैं । चूर्ण का नाम कालक है। मुखपाकनाशक क्वाथ । पीतक चूर्ण सप्तच्छदोशीरपटोलमुस्तदात्विसिंधूद्भवमनः शिलायावशः हरीतकीतिककरोहिणीभिः । यष्टयाइवराजदुमचंदनैश्च धार्यः पीतकचू! दंतास्यगलामये क्वार्थ पिबेत्पाकहरं मुखस्य ॥ समवायः॥ __ अर्थ-दारुहलदी की छाल, सेंधानमक, अर्थ-साता, खस, पर्वल, मोथा, हरड, मनसिल, जवाखार, हरताल इन सव द्रव्यों कुटकी, मुलहटी, अमलतास और रक्तचन्दन इनका काढा पीनेसे मुखपाक जाता रहता है के चूर्ण को घी और शहत में मिलाकर मुखरोग नाशक कषाय । मुख में धारण करने से मुख दांत और गले पटोलशुठीत्रिफलाविशालाके सम्पूर्ण रोग नष्ट हो जाते हैं । इस चूर्ण त्रायतितिक्ताद्विनिशामृतानाम । का नाम पीतक है। पीतः कषायो मधुना निहति गलरोगनाशिनी गुटिका । मुखस्थितश्चास्यगदानशेषान् ॥ द्विक्षारधूमवरापंचपटुव्योषवेल्लगिरिताक्ष्यः अर्थ-पर्वल, सांठ, त्रिफला, इन्द्रायण, गोमूत्रेण विपक्का गलामयघ्नी रसक्रियया। त्रायंती, कुटकी, हलदी, दारुहलदी और ___ अर्थ-जवाखार, सज्जीखार, गृहधूम, गिलोय इनके काढेमें शहत मिलाकर पान त्रिफला, पांचों नमक, त्रिकुटा, वायबिडंग करे अथवा मुखमें गंडूष धारण करे तो सब और रसौत इन सब च्यों को गोमूत्रमें प्रकार के मुखरोग दूर हो जाते हैं। कहरितालैः। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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