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(४६२)
अष्टांगहृदय ।
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अर्थ-देह और धातुओं के दुर्बल होने | सलिये व्याधिक प्रतिपक्षवाली औषधोंसे सिं. से पुराना ज्वर बहुत काल पर्यन्त ठर-द्ध किया हुआ घृत वातपित्ताधिक्य जीर्ण
ज्वरमें निःसंदह देना चाहिये । जीर्णज्वर में घृतपान :
ज्वरोमा में घृत । रूशं हि तेजो ज्वरकृतेजसा रूक्षितस्य व। वमनस्वेदकालांबुकषायलधुभोजनैः ॥४८॥
विपरीतं ज्वरोष्माण अयत्पित्तं च शैत्यतः । यः स्यादतिवलो धातुः सहचारीसदागतिः
| स्नेहाद्वातं घृतं तुल्ययोगसंस्कारतः कफम् ।। तस्य संशमनं सर्पिर्दीतस्येवांबु वेश्मनः ॥ ____ अर्थ-घृत अपने स्निग्ध और शीतगुण
अर्थ-रूक्ष तेज ज्वरोत्यादक होता है। से रूक्ष और तीक्ष्णादि विपरीतगुण वाली रूक्ष कहने से देहकी ऊमा अर्थात् जठ- ज्वरकी ऊष्माको जीतता है । शीतगगसे उष्ण राग्नि का ग्रहण है, उस रूक्ष तेज के
गुणवाले पित्तको, स्निग्धगुण से रूक्षगुणविद्वारा ज्वररोगी रूक्षित होजाता है और
शिष्ट वायुको और कफनाशक द्रव्योंसे सिद्ध उस समय में की हुई वमन, स्वेद, का
किया हुआ घृत तुल्य गुणवाले कफ को जील, जल, और क्वाथपान और लघुभोजन इन
तता है । सब रूक्षताको उत्पन्न करनेवाले कार्यों से
मलानुसार सघृतकषायका प्रयोग । वायु अत्यन्त प्रबल होकर वरात्मक तेज अ
पूर्व कषायाः सघृताः सर्वयोज्या यथामलम् । र्थात अग्निके साथ होलेती है, और अग्नि- अर्थ-पहिले जो जो कपाय कहे गये हैं स्वभाव होने के कारण पित्ताख्य धातु भी सा- | वे सब पाचन वातादि दोपों के अनुसार जीथ होलेती है, इसलिये जीर्णज्वरमें रूक्ष देह.
| ज्वर में घृत के साथ देने चाहिये ।
घर में वाले मनुष्य के लिये घृतपान प्रशस्त है, जैसे
अन्य क्वाथ । जलते हुए घरकी अग्निका बुझाने वाला ज- त्रिफलापिचुकंदत्वक शुकम् बृहतीद्वयम् । ल है वैसेही रूक्षताकृत जीणज्वर का संश- समसूरदलं कायः सतो ज्वरकासहा ८८ मन करनेवाला घृतपान है। ____ अर्थ-त्रिफला, नीम की छाल, मुलहटी,
वातपित्तोत्तर जीर्णज्वरमें घृत। छोटी कटेरी, बडी कटेरी, और मसूर इनका वातपित्ताजतामग्रयम् संस्कारमनुरुध्यते।। क्वाथ घृतके साथ पान कराने से ज्वर और सुतरां तद्धयतो दद्याद्यथा स्वौषधसाधितम् |
खांसी जाते रहते हैं। “अर्थ-वातपित्त को जीतनेवाली जितनी
अन्य प्रयोग। औषध हैं उन सबमें घृत प्रधान है क्योंकि पिप्पलीद्रयवधावनितिक्तायह संस्कारका अनुवर्तन करता है, अर्थात् सारिवामलकतामलकीभिः । जिा द्रव्य के साथ पकाया जाता है, उसीके
बिल्वमुस्तहिमपालनिसेव्यै
द्राक्षयातिविषया स्थिरया च ॥ ८९ ॥ गुणको ग्रहण करलेता है और अपने स्निग्धा
घृतमाशु निहंति साधितम्दि गुणोंका भी परित्याग नहीं करता है, इ. ..ज्वरमग्निं विषमं हकमिकम्।
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