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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ१ चिकित्सिवस्थान भाषादीकासमेत । (४६३) अरुचि भृशतापमंसयो- जीर्णज्वरनाशक पांचस्नेह । मधुं पार्श्वशिरोरुजम् क्षयम् ॥९०॥ गुडूच्या रसकल्काभ्यां त्रिफलायावृषस्य च अर्थ-पीपल, इन्द्रयव, कटेरी, कुटकी, मूहीकाया बलायाश्व स्नेहाः सिद्धासारिवा, आमला, भूम्यामलक, वेलगिरी,ना ज्वरच्छिदः ॥९३॥ गर मोथा, हिम ( रक्तचंदन , पालती,खस, अर्थ-गिलोय, त्रिफला, बासक, किसदाख, अतीम, और शालपर्णी इनसब औषधों मिस और खरैटी इन पांच द्रव्योंके अलग२ से सिद्ध किया हुआ घृत ज्वर, अग्निकी वि क्वाथ और कल्क में सिद्ध किया हुआ पांच षमता, हलीमक, अरुचि, दोनों कंधोंका अ प्रकार का घृत जीर्ण ज्वरको दूर करदेताहै : तिताप, वमन, पसली का दर्द, शिरोवेदना । परिणत वृतमें रस भोजन । और क्षयरोग को शीघ्र नष्ट कर देता है । जीर्ण घृतं च जीत मृदुमांसरसौदनम् । वातज पित्तज ज्वर में दूत । बलं ह्यलं दोषहरंपरं तच्च बलप्रदम् १९४। तैल्यकम् पाजपनि ज्वरें ___ अर्थ - घृतके जीर्ण होनेपर कोमल मांसयोजयनिवृतया बियोजितम्। । रसके साथ ओदना खाना चाहिये, यह वल तिक्तकम् वृषवृतम् च पैत्तिके- को प्राप्त हुए दोष का हरनेवाला और स्वयं यच पालांनकया शतम् हविः ॥ ९१ ॥ बलकारकहै । अर्थ-वातज ज्वरमें वात व्याधिचिकित्सितं कफपित्तनाशक रस । अध्यायमें कहेहुए तैवक घृत देवे परन्तु इस कफपित्तहग मुद्गकारवेल्लादिजा रसाः। में निसोथ न डाले । पित्तज ज्वर में कुष्ट प्रायेण तस्मानहिता जाणे वातोत्तरे ज्वरे०५ चिकित्सित अध्यायों कहा हुआ तिक्तक घृत शूलोदावतीवेष्टभजनना ज्वरवर्धनाः । और रक्तपित्तचिकित्सित अध्यायमें कहाहुआ अर्थ - मूंग और करेला आदि का रस बृषवृत देना चाहिये तथा त्रायमाण से सिद्ध । ( झोल ) कफपित नाशक होताहै, इसलिये किया हुआ घृत भी पित्तज्वर में हितहै । | यह प्राय; वाताधिक्य जीर्णज्वर में हितकारी कफज्वर में घृत । नहीं होताहै बाताधिक जीर्णज्वर में देनेसे विडंगसौवर्चलचव्यपाठा शूल, उदावर्त, विष्टंभ और ज्वरकी वृद्धि व्योषाग्निसिंधूद्भवयायशूकैः। पलांशकैः क्षीरसमं घृतस्य होती है। प्रस्थं पवेजीककज्वरजम् ॥ ९२ ॥ शमनाभाव में वमन । अर्थ-वायविडंग, संचल नमक, चव्य, नशाम्यत्येवमपि चेज्ज्वरः कुर्वीत शोधनम् ॥ पाठा, सौंठ, कालीमिरच, पीपल, सेंधानमक, शोधनार्हस्य वमनं प्रागुक्तं तस्य योजयेत् । और जवाखार इन सबको एक एक पल, | आमाशयगते दोषे वलिनः पालयन्वलम् ॥ दूध एक प्रस्थ, घृत एक प्रस्थ और चार __ अर्थ-उक्त रीतिसे यदि ज्वर शांत न प्रस्थ जल डालकर पकावे, इससे जीर्ण कफ हो तो शोधन के योग्य रोगी को [ पिप्पज्वर नष्ट होजाताहै। लीभिर्युतान् गालान् ) पिप्पल्यादि युक्त मैन For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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