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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०१४ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । ६४२७] नर्दशोऽध्यायः। | रोमत्वमायुधमनी तरुणास्थानि यैः .. क्रमात् ॥ ५॥ | भक्षयोच्छ्वत्रमस्माश्च कुष्ठबाह्यमुदाहृतम् । अथाऽतः कुष्ठश्चित्रकृमिनिदानम् अर्थ-इसरोग की चिकित्सा न किये जाने व्याख्यास्यामः पर कालांतर में यह सब देहको बिगाड देता अर्थ-अब हम यहां से कुष्ठ, स्वित्रकुष्ट | है, इसीलिये इसे कुछ कहते हैं कुष्ठरोग भीतर और कृमिरोग निदान नामक अध्याय की वाली संपूर्ण धातुओं को क्लेदित करके स्वेद, व्याख्या करेंगे। क्लेद और संकोथयुक्त छोटे छोटे भयंकर को? कुष्ठ की उत्पत्ति। को उत्पन्न कर देता है । ये कीड़े रोम, त्वचा, "मिथ्याहारविहारेण विशेषेण विरोधिना। स्नायु,धमनी और तरुण अस्थियों को क्रमसाधुनिंदावधान्य स्वहरणाद्यैश्च सेवितैः १ पाप्मभिः कर्मभिःसद्यःप्राक्तनैःप्रेरिता मलाः पूर्वक भक्षण करलेते हैं । जो लक्षण कुष्ठ सिराः प्रपद्य | के कहे गये हैं वे श्वित्र के नहीं होते हैं । तिथंगास्त्वग्ललीकास्मामिषम् ॥२॥ श्वित्र केवल त्वचा में आश्रित रहता है इस दूषयति श्लथीकृत्य निश्चरंतस्ततो बहिः। लिये इसे वाह्यकुष्ठ कहते हैं । और कुष्ठ त्वचा कुर्वति वैवयं दुष्टाः कुष्ठमुशंति तत् ॥ संपूर्ण धातुगत होता है । यही दोनों में अर्थ-मिथ्या और विशेष करके एक दूसरे के विपरीत आहार विहारादि करने से, | अंतर है। साधुओं की निंदा करने से, साधुओं का कुष्ठके भेद। वध करने से, पराया धन हरण करने से, कुष्ठानि सप्तधा पृथशामित्रैः समागतैः ॥६॥ तथा पूर्वजन्म के किये हुए अनेक पाप | सर्वेष्वपि निंदोषेषु व्यपदेशोऽधिकत्वतः। कमों से प्रेरित और दूषित हुए वातादि __ अर्थ-कुष्ठ सात प्रकार के होते हैं, दोष तिर्यकगामिनी संपूर्ण सिराओं में पहुंच यथा-- बातज, पित्तज, कफज,वातापत्तज, कर त्वचा, लसीका, रक्त और मांसको वातकफज, पित्तकफज और त्रिदोषज । सव दूषित करदेते हैं और उन्हीं दूषित त्वचादि प्रकार के त्रिदोषज कुष्ठोंमें दोषों की समविको शिथिल करके बाहर की ओर निकलने षमता के कारण उनका व्यपदेश अर्थात् लगते हैं, इससे त्वचा के रंग में विवर्णता संज्ञा है। होजाती है। दोषानुसार कुष्ठके नाम ॥ कुष्ठ नाम का कारण । | वातेन कुष्ठं कापालं पित्तादादुंबरं कफात् । कालेनोपक्षित यस्मात्सर्व कुष्णाति तद्वपुः । | मंडलाख्यं विचर्चीच ऋक्षाख्यं वातपित्तजम् प्रपद्य धातूव्यायांतः सर्वान् सक्लेद्य- | चौंककुष्ठं किटिभसिमालसविपादिकाः।८। चावहेत् ॥४॥ वातश्लेष्मोद्भवा श्लेष्मपित्ताइदुशतारुषी। सस्वेदक्लेदसकोथान् पुंडरीकं सविस्फोटं पामा चर्मदलं तथा।९। कृमीन्सूक्ष्मान्सुदारुणान् ।। सर्वैः स्यात्काकणं पूर्व त्रिचदुसकाकणम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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