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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२८) अष्टांगहृदय । अ०१३ पुंडरीकर्मजिहे च महाकुष्ठानि सप्त तु । रोमहर्ष, रक्तमें कालापन ये सब पूर्वरूप प्र अर्थ-सबकुष्ठ १८ प्रकार के होते हैं, | काशित होते हैं । यथा-वातोल्वण सन्निपातसे कपाल नाम- | कापाल कुष्ठके लक्षण । ककुष्ठ होता है इसीतरह पित्ताधिक्य सन्नि- कृष्णारुणकपालाभं रूक्षं सुप्तं खरं तनु । पात से उदुंवर नामक, कफाधिक्य से म- विस्तृतासमपर्यंत दूषितैर्लोभाभिश्चितम् । डलाख्य, और विचर्ची, वातपित्ताधिक्य से | तोदाढ्यमल्पकंडूकं कापालं शीघ्रसर्पि य । ऋक्षाख्य, वातकफाधिक्य से चर्म, किटिम, अर्थ-कापालकुष्ठमें कुछ काला, कुछ सिध्म, अलसक और विपादिका नामककुष्ठ लाल बर्ण कपाल के सदृश आभाविशिष्ट होतेहैं । पित्तकफाधिक्य से ददु, शतारु, पुंड होता है । यह रूक्ष, स्पर्शज्ञानरहित, छूने रीक, विस्फोट, पामा और चर्मदल नामक में खरदरा, पतला, फैलाहुआ, किनारों पर कुष्ठ होते है तथा त्रिदोष से काकण कुष्ठ ऊंचानीचा, दुष्टरोंमों से युक्त, अत्यन्त तोदहोता है । इनमें से कापाल, औदुम्बर,मंडल युक्त, अल्प खुजली से युक्त और शीघ्र फैल. ददु, काकण, पुंडरीक और ऋष्यजिह्र ये ने वाला होता है । सात महाकुष्ठ हैं, शेष ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ कह उदुवर के लक्षण ॥ लाते हैं। पक्कादंबरतानत्वग्रोमगौरसिराचितम् । कुष्टका पूर्वरूप । | वहलं बहुलक्लेदं रक्तं दाहरुजाधिकम् । १५। आशूत्थानावदरणकृमि विद्यादुदुबरम्। अतिश्लक्ष्णखरस्पर्शस्वेदास्वदविवर्णताः। । | अर्थ-औदुम्बरकुष्ठ पकेहुए गूलरके समान दाहः कंडूस्त्वाचे स्वापस्तोदः कोठोन्नतिः- । . श्रमः॥ ११॥ आकृतिवाला, ताम्रवर्ण त्वचा और रोमोंसे प्रणानामधिकं शूलं शीघ्रोत्पत्तिाश्चरस्थितिः युक्त, सफेद रंगकी सिराओं से व्याप्त, स्रा रूढानामपि रूक्षत्वं निमित्तऽल्पेऽपि कोपनम् वी, वहुक्लेदविशिष्ट, रक्तवर्ण, दाह और रोमहर्षोऽसुंजः फाये कुष्ठलक्षणमग्रजम्। वेदना से युक्त, होता है । यह शीघ्र उत्पन्न . अर्थ-जिसके कोढरोग होनेवाला होता | दोकर शीघ्रही फटजाता है और इसमें शाघ्र है उसका शरीर अत्यन्त चिकना वा खरद- | ही कीडे पड़ जाते हैं। रा होजाता है, पसीने अधिक आते है, वा मंडल के लक्षण । विलकुल वन्द होजाते हैं, शरीर में विवर्ण | स्थिरं स्त्यानं गुरु स्निग्धं श्वतरक्तमनाशुगम् ता, दाह, खुजली, विशेष विशेष अगों में अन्योन्यसक्तमुत्सन्नं बहुकंडूनुतिक्रिमि । स्पर्शका ज्ञान न होना, सुई छिदने कीसी श्लक्ष्णपीताभपर्यंतम् मण्डलम्घेदना, पित्तीका उछलना, परिश्रम, ब्रणोंमें परिमण्डलम् ॥ १७ ॥ अत्यन्त शूल, धावका जल्दी होना और अर्थ-मंडलकुष्ठ स्थिर, भारी, स्निग्ध, बहुत काल पर्यन्त रहना, घाव सूखजानेपर | श्वेत वा रक्तवर्ण से युक्त, शीघ्र न फैलने भी रूक्षता, अल्पकारण से बहुत प्रकोप, | वाला, एक दूसरे से मिलाहुआ, ऊंचा, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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