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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० १८ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (८२.) स्रावोक्त चिकित्सा करणा चाहिये । कृमि- . पालीपुष्टकृतेल। कर्ण में कडवे तेलका भरमा हित है। शतावरीवाजिगंधापयस्यैडजीबकैः । - कर्णविधि का उपाय । तैलं विपक्वं सक्षीरं पालीनां पुष्टिकृत्परम् पंमिपूर्ण हिता कर्णविदधौ विद्रधिक्रिया। ____ अर्थ-सिताबर, असगंध, दूग्धिका अरंड . अर्थ-कर्ण विद्रधिमें वमन क्रिया कराने | जीवक, और दूध इनके साथ में पकाया के पीछे विद्रधिमें कही हुई चिकित्सा करनी हुभा तेल कर्णपाली को बहुत पुष्ट करताहै। चाहिये । अन्य प्रयोग। क्षतविद्रधि का उपाय । कहकोन जीपनीयेम तैलं पयसि पाचितम् । पित्तोत्थकर्णशलोक्तं कर्तव्यं क्षतविद्रधी। भानूपमांसक्वाथे च पालीपोषणवर्धनम् । अर्थ-कर्णविद्रधिमें पैतिक कर्णशूलोक्त । अर्थ-जीवनीयगण का कल्क, दूध चिकित्सा करना चाहिये। और आनूप मांस का काढा, इनके साथ, ___ अर्णोर्बुद की चिकित्सा । पकाया हुआ तेल कर्णपाली को पुष्ट करता अशोऽर्बुदेषु नासाद है और बढाता है। अर्थ-कर्श और कर्णावंद की चिकि- पालीछेदन । सा नासिका की तरह करनी चाहिये। पाली छित्त्वातिसंक्षीणांशषांसंधायपोषयेत् .. कर्णविदारिका का उपाय। .. अर्थ-अत्यन्त क्षीण हुई पालीको काटआमा कर्णविदारिका । कर्णविधिवत्साध्या यथादोषोदयेन च।। कर बची हुई को जोडकर फिर बढाये। अर्थ-विना पकी कर्णविदारिका की | अन्य विधि। याप्येवं तंत्रिकाण्यापि परिपोटेप्ययं विधि: चिकित्सा दोषकी अधिकता के अनुसार कविद्रधि के समान करनी चाहिये। अर्थ-तंत्रका और परपोटक दोनों रोग पालीशोष की चिकित्सा । । । उक्तविधि से याप्य हो सकते हैं । पालीशोषेऽनिलोत्रशूलबमास्यलेपनम् । उत्पात में शीतल लेप। . स्वेचकुर्यातस्विनांच पालोमहर्तयेसिसी उत्पाते शीतलैलेंपो जलौकाहतशोणिते । प्रियालबीजष्टयाहाहयगंधायवान्वितैः । । अर्थ-उत्पात रोगों में जोकों से रुधिर ततः पुष्टिकरैः स्नेहैरभ्यंगं नित्यमाचरेत् । निकाल कर फिर शीतल लेपादि का प्रयोग ___ अर्थ-पालीशोष में वातिक कर्णशूल करे। रोग के समान नस्य प्रलेप और स्वेद द्वारा अभ्यंजन में तैलादि। चिकित्सा करनी चाहिये । फिर स्वेदित जंब्याम्पल्लवबलायष्टीरोध्रति लोत्पलैः । होने के पीछे कर्णपाली में तिल, चिरोंजी, सधान्याम्लै समंजिष्टःसकदंससारिच। मुलहटी, असगंध और जौ का उवटना | सिद्धमभ्यंजन तैलं विसर्पोक्तवृतानि । तथा पुष्टिकारक स्नेह द्वारा नित्यप्रति मर्दन । अर्थ-जामन और आपके पत्ते, बला, करना चाहिये। । मुलहटी, लोध, सिल, नीलोत्पल मजीठ, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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