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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ८ www.kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । वेगोंसे पीडित और रोगीकोइन सव अवस्थाओं में मैथुन का परित्याग कर देना चाहिये । कामसेवा का समय सेवेत कामतः कामं तृप्तो वाजीकृतां हिमे ॥ त्र्यहाद्व संतशरदोः पक्षाद्वर्षानिदाघयोः । अर्थ- हेमन्त और शिशिर ऋतु वाजीकरण औषधोंके सेवन द्वारा तृप्त होकर यथेच्छ स्त्रीसंग प्रवृत्त होना चाहिये । बसन्त और शरदकालमें तीन तीन दिन पीछे ग्रीष्म और बर्षाकालमें पन्द्रह पन्द्रह दिनका अंतर देकर स्त्रीसंगमें प्रवृत्त होना चाहिये । अन्यथा स्त्रीगमन | भ्रम क्लमो रुदौर्बल्यबलधात्विद्वियक्षयः ॥ अपर्वमरणं च स्वाइन्यथा गच्छतः स्त्रियम् । अर्थ - पूर्वोक्त नियमों का उल्लंघन करके जो स्त्रीगमन करता है उसे भ्रम, क्लान्ति ऊरुदौर्बल्य, धातुक्षय, इन्द्रियक्षय, और अ कालमृत्यु ये रोग होजाते हैं । नियमानुसार स्त्रीगमन | स्मृतिमेधायुरारोग्य पुष्टींद्रिययशोवलः । अधिक मंदजरसो भवति स्त्रीषु संयताः ॥ अर्थ- जो नियमपूर्वक स्त्रीसंगम करते हैं उनकी स्मरणशक्ति, मेधा, आयु, आरोग्यता, शरीर की पुष्टि, इन्द्रियशक्ति, यश और बल, ये सब वृद्धिको पाते हैं और बुढापाभी उनपर बहुत धीरे धीरे आक्रमण करता है । रतों में कर्तव्य | नानानुलेपनहि मानिलखडखाद्यशीतांबुदुग्धरसयूषसुराप्रसन्नाः । सेवेत चानुशयनं विरतौ रतस्य तस्यैत्रमाशु वपुषः पुनरेति धाम << ११ ॥७५॥ ( ८१ ) अर्थ-मैथुन के पीछे स्नान, चंदना दि लेपन, शीतलबायु सेवन, मोदकादि भोजन, शीतल जल, दूध, मांसयूष, मुद्रा. दियत्र, सुरा, अथवा प्रसन्नानामक मद्य पान करके नींद लेवे | ऐसा करने से रतिकर्म से उत्पन्न हुई दुर्वलता जाती रहती है और फिर नवीन बलका संचार देह में होजाता है । बैद्यको शरीर का स्वामित्व | श्रुतचरितसमृद्धे कर्मदो दयालौ पिजि निरतुबंधं देहरक्षां निवेश्य । भत्रति विपुलतेजःस्वास्थ्यकीर्तिप्रभावः । स्वकुशलफलभोगी भूमिपालश्चिरायुः ॥ अर्थ- जो राजा आयुर्वेद शास्त्रज्ञ, सदा • चिकित्साकुशल, और दयालु वैद्यक प्रति संपूर्णतया अपनी देहरक्षाका भार समर्पणकर देता है, वह अत्यन्त पराक्रमशाली, दीर्घायु तथा स्वस्थ, कीर्तिमान, और प्रतापी होकर कुशलफल का भोगने वाला होता है । इति श्री अष्टांगहृदये भापाटीकायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ चार, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टमोऽध्यायः । For Private And Personal Use Only Blee अथातो मात्राशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहां से मात्राशितीय अध्याय की व्याख्या करेंगे । मिताहार का विधान । 'मात्राशी सर्वकालं स्यान्मात्रा ह्यग्नेः प्रवर्तिका । मात्रां द्रव्याण्यपेक्षते गुरुण्यपि लघून्यपि ॥
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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