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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदये। अ. ८ अर्थ-सदा परिमिताहारी. होना चाहिये | को प्राप्त न होकर तीनों दापों को प्रकुपित अर्थात् निरोगतामें चाहै रोगावस्थामें, चाहै | करता है । वाल्यकाल में, चाहै ग्रीष्मादिऋतुमें, चाहेदिन कुपित हुए तीनों दोष जिसतरह अल में चाहै रातमें सब समय थोडा आहार करना सक और विशचिकादि व्याधियों को करते उचित है, क्योंकि मिताहार ही जठराग्निका | हैं वही वात दिखाते हैं। बढाने वाला है, अग्निका बढनाही देहकी __ अतिमात्रा का फल । स्थितिका हेतु है क्योंकि कहाभी है “अ- पीड्यमाना हि वाताद्या युगपत्तेन कोपिताः। ग्निमूलं बलंपुंसां वलामूलं हि जीवितम् "इस आमेनान्नेम दुष्टेन तदैवाविश्य कुर्वते । लिये मात्रा प्रधान है।द्रव्य भारी हो वा हलका विष्टंभयंतोऽलसकं च्यावयतो विषूचिकाम् ।। अधरोत्तरमार्गाभ्यां सहसैवाजितात्मनः । सब प्रकार के द्रव्य मात्रा की अपेक्षा करते ___अर्थ-बिना पचे हुए दुष्ट आहार से वाताहैं । गुरुद्रव्य, यथा:-पिष्टक, क्षीर, दाख, दि तीनों दोप पीड्यमान होकर मार्ग रुक शहत, ईख, उरद और आनूप मांसादि । जानके कारण एक साथ प्रकपित होकर उसी लघुद्रव्य यथाः.. आंतरीक्ष जल, रक्तशालि, दुष्ट अन्न में प्रवेश करके और उसे गमन साठी चांवल, मूंग, लवा, कपिंजल, हिरण, मार्ग में रोककर अलसक रोग को उत्पन्न खरगोश और शंबरादि । करता है । अथवा सहसा उसी दुष्ट अन्न गुरुलघुद्रव्यों की मात्रा । को ऊपर वा नीचे के मार्गद्वारा निकालता गुरूणामर्धसाहित्यं लघूनां नातितृप्तता। मात्राप्रमाणं निर्दिष्ट सुखं यावद्विजीर्यति ॥२ हुआ विशूचिका रोग को उत्पन्न करता हैं । अर्थ--भारी द्रव्य अतृप्ति अर्थात् भूख | ये दोनों रोग अजितात्मा अर्थात् भोजनसे आधा और हलका द्रव्य पेट भरकर खा । | लोलुपों को ही होते हैं। लेना चाहिये । जिसको जितना सुखपूर्वक अलसक का लक्षण । पचजाय उतना ही उसकी मात्रा का असल प्रयाति नोर्ध्व नाधस्तादाहारो न च पच्यते। आमाशयेऽलीभूतस्तेन सोऽलसकःस्मृतः परिमाण जानना चाहिये । ___ अर्थ-जो आहार ऊपर के मार्ग अर्थात् हीनातिमात्रा का फल | मुखद्वारा नहीं निकलता है अधो मार्ग गुदा भोजनं हीनमात्रं तु न वलोपचयौजसे।। सर्वेषां वातरोगाणां हेतुतां च प्रपद्यते ॥३॥ र द्वारा भी नहीं निकलता है और न पचता अतिमात्र पुनः सर्वानाशु दोषान् प्रकोपयेत् ।। ही है, केवल नाभि और स्तनों के मध्यवर्ती अर्थ-हीनमात्रा भोजन शरीर के वल, आमाशय नामक स्थान में अलसीभूत अर्थात् पुष्टि और ओजकी वृद्धि का कारण न हो । स्तब्ध भाव में रहता है उसे अलसक रोग कर केवल वात रोगों का कारण हो जाता | | कहते हैं जैसे अनुद्यमशील मनुष्य आलसी है। इसी तरह भतिमात्रा भोजन परिपाक कहलाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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