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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० २० www. kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । अर्थ - यदि शिरोविरेचन अच्छी तरह हो गया होय तो नेत्रों में हलकापन, तथा स्वर और मुखमें शुद्धि हो जाती है | और जो शिरो विरेचन अच्छी तरह न हुआ हो तो रोग की वृद्धि होती है, और अत्यन्त विरेचन होने पर शरीर में कृशता होती है । प्रतिमर्श का विषय । प्रतिमर्शः क्षतक्षामबालवृद्धसुखात्मसु । प्रयोज्योऽकालवर्षेऽपेि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८५ ) प्रतिमर्श का फल । पंचसु स्त्रोतसां शुद्धिः क्लमनाशस्त्रिषु क्रमात दृग्वलं पंचसु ततो दंतदादर्थ मरुच्छमः । अर्थ - ऊपर कहे हुए पन्द्रह कालों में से रात्रि, दिवस, भोजन, वमन और दिवा निद्रा इन पांचों के अंत में प्रतिमर्श की मात्रा देने से स्रोतों की शुद्धि हो जाती है । मार्गभ्रमण, परिश्रम और मैथुन के अंत में प्रतिशर्म नस्य से थकावट जाती रहती है । शिरोभ्यंजन, गंडूषधारण, प्रस्राव, अंजनग्रहण और मलत्याग "इनके अंत में प्रतिमर्श की योजना से नेत्रों में बल बढ़ता है । - वन और हास्य के पीछे प्रतिमर्श को योजना करने से दांत दृढ और वायुका शमन होता है । न विष्टो दुष्टपनिसे ॥२६॥ मद्यपीतेऽवलोत्रे कृमिदूषितमूर्धनि । उत्कृष्टोत्लष्टदोषे च 'हीनमात्रतया हिसः ॥ २७ ॥ अर्थ - अकालमें बर्षा होनेपर भी पूर्वोक्त और - प्रतिमर्श नस्य क्षतक्षीण, बालक, वृद्ध सुखी जीवोंके लिये देनी चाहिये किन्तु जिनका पीनस रोग बिगड गया है, जो शराबी हैं, जिनके कानोंके मार्ग रुक गये हैं, जिनके मस्तक में कृमिरोग है, जिनके दोष अपने स्थानसे चलकर प्रकुपित होगये हैं, इनको प्रतिमर्श देना उचित नहीं है क्योंकि प्रतिमर्श हीनमात्रा होती है और हीनमात्रा देने से दोष उपाड़ करते हैं पर शमन नहीं होते । न वयपरत्व से नस्यादिका नियम । ननस्यमून सप्ताब्दे नाऽतीताऽशीतिवत्सरे ॥ न चोनाटादशे धूमः कवलो नोनपंचमे । शुद्धिरुनदशमे न चाऽतिक्रांतसप्ततौ ॥ अर्थ - सात वर्ष से कम और अस्सी वर्ष से ऊपर की अवस्थावाले को नस्य न देना चाहिये | अठारह वर्ष से कम अवस्थावाले को धूमपान नहीं करना चाहिये, पांचवर्ष की अवस्था से कमवाले को कवलधारण का दंतकाष्ठस्यहासस्ययोज्यऽतेऽसौद्विविदुकः निषेध हैं, तथा दस वर्ष से कम और स प्रतिमर्श का काल और मात्रा | निशांकांताहः स्वप्नाध्वश्रमरेतसाम् । शिरोभ्यंजनगंडूष प्रस्रवां जनवर्चसाम् २८ ॥ तर वर्ष से ऊपर की अवस्था वालों को वमन विरेचन नहीं देना चाहिये । अर्थ - रात्रि, दिवस, भोजन, वमन, दिवानिद्रा, मार्गभूमण, परिश्रम, वीर्यपात, शिरोभ्यंजन ( मस्तक में तेल लगाना कुल्ला, प्रस्राव, अंजन लगाना, मलत्याग, दांतन करना, और हास्य इन पन्द्रह कामों के पीछे प्रतिमर्श स्नेह के दो बिन्दु नाक में डालने चाहिये । २४ For Private And Personal Use Only प्रतिमर्शका सदासेवन । आजन्म मरणं शस्तः प्रतिमर्शस्तु वस्तिवत् । मर्शवच्चगुणान्कुर्यात्स हि नित्योपसेवनात् नचाऽत्र यंत्रणा नाऽपि व्यापद्भ्योऽमर्शव यं ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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