SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अँ १ www.kobatirth.org शारीरस्थान भावाटीकासमेत । दृश्य अदृश्य स्रोतों का निरूपण । स्रोतांसि नासिके कर्णौ नेत्रे पाय्वास्यमेहनम् स्तनौ रक्तपथश्वेति नारणिामधिकं त्रयम् । जीवितायतनान्यंतःस्त्रोतांस्यादुत्रयोदश ॥ प्राणधातुमलाभोऽन्नवाहीनि अहितसेवनात् । तानि दुष्टानि रोगाय विशुद्धानि सुखाय च ॥ अर्थ-पुरुष के नौ स्रोत होते हैं, यथा दो नासाछिद्र, दो कान, दो नेत्र, एकगुदा, एकमुख और एक मुत्रमार्ग । स्त्रियों के तीन अधिक होते हैं अर्थात् दो स्तन और एक मासिक रक्त निकलने का मार्ग । इनके सिवाय १३ स्रोत शरीर के भी - तर होते हैं, ये जीवन के प्रधान आधार हैं वे ये हैं- प्राणवायु को वहन करने वाले प्राणवाही, रसरक्तादि सात धातुओं का वहन करनेवाले ७ धातुवाही, मूत्रपुरीष स्वेदादि वहन करनेवाले तीन मलवाही, उदकवाही और अन्नवाही | अहित आहार विहार के सेवन से दुष्ट Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२९१) हुए ये स्रोत रोगों को उत्पन्न करते हैं। और विशुद्ध स्रोत सुख उत्पन्न करते हैं । खोतों की आकृति । स्वधातु समवर्णानि वृत्तस्थूलान्यणूनि च । स्त्रोतांसि दीर्घायाकृत्या प्रतानसदृशानि च अर्थ- संपूर्ण स्रोत अपनी धातु के सदृश वर्ण वाले होते हैं अर्थात् जिस स्रोत की जो धातु है उसका रंग उसी के समान होता है जैसे रसवाही स्रोत का रंग रसधातु के सदृश, शुक्रवाही स्रोत का रंग शुक्रधातु के सदृश, इत्यादि । तथा कोई स्रोत गोल, कोई स्थूल, कोई सूक्ष्म होते है किन्तु आकृति के विचार से संपूर्ण स्रोत दीर्घ और वृक्ष के पत्तों की तरह शाखा आहारादि से स्रोतों का दूषित होना प्रशाखा से युक्त दूर तक फैले है । हुए आहारश्व विहारश्व यः स्याद्दोषगुणैः समः। धातुभिर्विगुणो यश्व स्रोतसांस प्रदूषकः ॥ अर्थ- वात पित्त कफके गुणों वाला संग्रह में लिखा है कि प्राणवाही स्रोतों का मूल हृदय है, ये स्रोत क्षय, रौक्ष्य पिपासा, क्षुधा व्यायाम और मलमूत्रादि के वेगों को रोकने से दूषित हो जाते हैं इसमें अतिसृष्ट, प्रतिबद्ध, कुपित, अल्पाल्प, अभीक्ष्ण और सशब्द श्वास निकलता है इसमें श्वासरोगोक्त क्रिया कर्तव्य है । उदकवाही स्रोता का मूल तालु और क्लोम है ये आम अतिपान, शुष्क अन्न सेवन और पुरीषग्रह से दूषित होकर अतितृष्णा, शोष, कर्णasa और तमोदर्शन ( आंखों के आगे अंधरी ) रोगों को करते हैं, इसमें तृषा के प्रकरण में कही हुई औषध करना चाहिये । अन्नवाही स्रोतों का मूल आमाशय और वामपार्श्व है इसमें मात्राशितीयोक्त विधिका पालन करना चाहिये । रसवाही स्त्रोतों का मूल हृदय और इस धमनी हैं । रक्तवाही का यकृत और प्लीहा | मांसवाही के स्नायु और त्वचा । मेदोवाही के वृक्क और मांस । अस्थिवाही के जघन और मेद् | मज्जा वाही के पर्व और अस्थि । शुक्रवाही के स्तन, मुष्क, और मज्जा । मूत्रवाही के वस्ति और क्षण । पुरीषवाही के पक्काशय और स्थूलांत्र । स्वेदवाही के मेद और रोमकूप होता हैं, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy