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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२९०) अष्टांगहृदय । शुद्ध रक्त बहता है । इसतरह रक्त और बा- | लक्षण मिलेहुए होते है उनसे कफबातजुष्ट, तादि संपूर्ण दोष यथावस्थित रहनेसे शरीर | वातपित्तजुष्ट, कफपित्तजुष्ट, वा कफवातपित्त को धारण करते हैं और जब इनकी स्थिति | जुष्ट रक्त बहता है । में कोई विकार होजाता है तब शरीर को शुद्धरक्तके लक्षण। पीडा पहुंचाते हैं। गूढाः समस्थिताः स्निग्धारोहिण्यः शुद्धशोवातादिजुष्ट सिराकालक्षण । णितम् ॥ ३८॥ तत्रश्यावारुणाःसृक्ष्माःपूर्णरिक्ताःक्षणात्सिराः अर्थ-गूढ ( मांसादि से छिपी हुई ), प्रस्यादिन्यश्च वांतनं वहंते । | समभावमें स्थित, और रोहिणी नामक सिरा पित्तशोणितम् । जो लोहितवर्ण और प्रसरणशील होती है वे स्पर्शोष्णाः शीघ्रवाहिन्यो नीलपाताः कफ- | पुनः ॥ ३७॥ शुद्ध रक्तको बहानेवाली है। गौर्यः स्निग्धाः स्थिराः शीताः संसृष्टं- नाभिसंबद्ध सिराओंका वर्णन । लिंगसंकरे। धमन्यो नाभिसंबद्धा विंशतिश्चतुरुत्तराः। अर्थ-इनमेंसे जो सिरा श्याव वा अरु- | ताभिः परिखतोनाभिश्चक्रनाभिरिबारकैः॥ ण रंगकी है। तथा सूक्ष्म और क्षण क्षण में । ताभिश्चोर्ध्वमधस्तिर्यग्देहोऽयमनुगृह्यते । भरनेवाली और रीती होनेवाली सिरा तथा । अर्थ-धमनी गिनतीमें चौबीस होती है। फडकने वाली सिरा ये सब बातरक्तवाही हो ये सब नाभिसे बंधी हुई है और इन ती है। जो सिरा स्पर्श करनेमें गरम, शीघ्र धमनियोंसे नाभि इस तरह घिरी हुई है जैसे गामिनी तथा रंगमें नीलीपीली होती है ये गाढी के पहिये का मध्य भाग अरों ( पसब पित्तदूषित रक्तको बहानेबाली है । जो हिये की आढी तिरछी लकड़ियों ) से घिरा सिरा श्वेतवर्ण, स्निग्ध, अचल और स्पर्शमें रहता है । ये धमनियां ऊंची,नीची और तिशीलत हैं वे कफदूषित रक्तवाहिनी होती है। रछी गई है । इनके द्वारा रस संपूर्ण देह में तथा जिन सिराओं में वातादि दोषोंके उक्त | जाता है और देहको पोषित करता है॥ +संग्रह में लिखा है कि इन धमनियों में से दस ऊपर को, दस नीचे को और ४ तिरछी जाती हैं, तथा ऊपर वालियों में से प्रत्येक के तीन तीन भेद होकर तीस भागों में बंटगई हैं, जिन में से दो दो में बात, पित्त, कफ, रक्त और रस बहता है, दो दो शब्द रूप, रस, और गंधको ग्रहण करती हैं। दो दो से भाषण, घोष, निद्रा और प्रतिबोधन हो ता है। दो आंसू निकालती हैं और दो के द्वारा स्त्रियों के स्तनों से दूध और पुरुषसे वीर्य का यहन करती हैं। इसी तरह अधोगाभिनी दश भी तीस भागोंमें विभक्त होजाती है उन में से दो दो के हिसाबसे दश तो कफ, बात, पित्त, रक्त और रसका बहन करती हैं । दो अन्नवाहिनी हैं । दो दो मुत्र, जल और शुक्रको वहन करती हैं। दो त्यागती हैं । येही दो लियों के रज को वहन करती हैं । दो वर्चनिरसन स्थूल मांतोंसे प्रतिवद्ध हैं । शेष आठ द्वारा पसीने निकलते हैं । तथा तिर्यग्गत चार के तो बहुत भेद हैं । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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