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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३९२) अष्टांगहृदय । अ ९ एकाश्रित शरीरावयव । बडी जलन और वेदना होती है, मूत्रका बस्तिबस्तिशिरोमेढूकटीवृषणपायवः ॥ रंग पीला या लाल होता है । एकसम्बन्धनाःप्रोक्ता गुदास्थिविवराश्रयाः॥ अर्थ- बस्ति, वस्तिका सिर, लिंग, क कफज मूत्राघात । कफजे घस्तिमेगौरवशोफवान् । मर, वृषण, और गुदा ये छः अवयव एकही | सपिच्छं सविबन्धम् चजगह ग्रथित हैं, अर्थात् ये सम्र गुदाके अ अर्थ-कफज मूत्राघात में वस्ति और स्थिछिद्रोंमें आश्रित हैं। लिंगप्रदेश में भारापन और सूजन हो जाती | है, तथा मूत्र भी पिच्छिल और रुकरुककर . मूत्राघाप्त की उत्पत्ति । निकलताहै। अधोमुखोऽपि बस्तिर्हि मूत्रवाहिसिरामुखैः त्रिदोषज मूत्राघात । पार्श्वभ्यः पूर्यते सूक्ष्मैः स्यंदमानैरनारतम् ॥ यैस्तैरेष प्रविश्यैनं दोषाः कुर्वति विंशतिम्।। सवैः सर्वात्मकम् मलैः ॥५॥ मूत्राघातान् प्रमेहांश्च कृच्छ्रान्मर्मसमाश्रयान् अथे-जो मूत्राघात वातादि तीनों दोषों ___ अर्थ-यद्यपि वस्ति का मुख नीचे की | से उत्पन्न होताहै, उसमें तीनों दोष के और है तथापि चारों ओर से सूक्ष्म सि- मिले हुए लक्षण प्रतीत होतेहैं। राओं के मुख में होकर निरंतर मूत्र आता - अश्मरीके लक्षण । रहता है, इससे वस्ति मूत्र से भरजाती है यदा घायुर्मुखं बस्तेरावृत्य परिशोषयेत् । मूत्र सपित्तं सकफंसशुक्रवा सदा क्रमात् ॥ इन्हीं सिराओं के द्वारा दोष भी वस्ति में | सजायतेऽश्मरी घोरा पित्तागोरिव रोचना। प्रविष्ट होकर वीस प्रकार के मूत्राघात और श्लप्माश्रया व सर्या स्यात्प्रमेह रोगों को उत्पन्न करदेते हैं, ये रोग अर्थ--जन वायु पस्तिके मुखको आच्छामर्माश्रित होने के कारण कष्टसाध्य होते हैं। दित करके कभी केवल मूत्रको अथवा कभी घातजमूत्रकृच्छ्र के लछण । सपित्त मूत्रको अधया कभी कफसहित मूत्र वस्तिवंक्षणमेदार्तियुक्तोऽल्पाल्पं मुहुर्महुः ।। मूत्रयेद्वातजे कृच्छे देती है सब अश्मरी रोग उत्पन्न होता है । __ अर्थ - वातज मूत्राघात में वस्ति वक्षण ये रोग वा भयंकर होता है । इसे लोकमें और लिंग में मूत्र करने में बड़ा दर्द होता पथरी कहते हैं । मूत्राश्मरी घोरा होती है। और मूत्र थोडा थोडा करके बार बार नि पित्ताश्मरी घोरतरा, कफाइमरी घोरतमा और कलता है । इसीसे इसे मूत्रकृच्छ्र कहते हैं। शुक्राश्मरी घोराघोरतमा होती है। जैसे गोपित्तन मूत्राघात । पित्त वायुसे अवरुद्ध होकर धीरे धीरे गोरोपैत्ते पीतं सदाहरुकू ॥ ४॥ चन वन जाता है, ठीक वैसेही मूत्र रुककर रक्तं वा अश्मरी बनजाता है । सब प्रकारकी अश्मरी अर्थ-पित्तज मूत्राघात में मूत्र करने में | का मुख्यहेतु कफ है ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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