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म०२२
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ६८१ )
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अर्थ-आमदोषों से युक्त वायु जब स्वेद, उपवास, पाचन, तथा रूक्ष प्रलेप और परिषेकादि द्वारा जब आम दोष से रहित हो जाय तब केवल वातनाशक औषधों का प्रयोग करना चाहिये ।
इसमें जांगल मांस, शालिचांगल, तथा दूध से युक्त मृदु विरेचन देना हित है । उक्तरोग में वस्ति |
अंगशोषादि में चिकित्सा | शोषाक्षेपणसंकोचस्तंभस्त्रपनकंपनम् । हनुन सोर्दितं खांज्यं पांगुल्यं खुडवातता ॥ संधिच्युतिः पक्षवधो मेदोमज्जास्थिगा गदाः पते स्थानस्य गांभीर्यात्सिध्येयुर्यत्नतो न वा ॥ तस्माज्जयेन्नवानेतान् बलिनो निरुपद्रवान् ।
अर्थ - अंगशोष, आक्षेप, अंगसंकोच, अंग लकडी की तरह जकडना, स्पर्शज्ञान की शून्यता, कंपन, हनुस, अर्दित, खंजता, पांगलापन, खडवात, संधियोंका हट जाना, पक्षाघात, मेदा, मज्जा और अस्थि के रोग ये सब स्थान की गंभीरता के कारण थोड़े दिन के होने पर भी बहुत यत्न करने पर अच्छे हो भी जाते हैं और नहीं भी होते हैं । इसलिये उचित है कि रोगी की देह में बल रहते र. हते उत्पन्न होते ही जब तक किसी प्रकार का उपद्रव उपस्थित न होने पावै इस रोग 'की चिकित्सा करनी चाहिये ।
पिसावृत वायुमं कर्तव्य | वाय पित्तावृते शीतामुष्णां च बहुशः क्रियाम् ॥ ५३ ॥ व्यत्यासाद् योजयेत्सर्पिर्जीवनीयं च पाययेत् धम्मासं यवाः शालिर्विरेकः क्षीरवान्मृदुः
अर्थ- वायु के पित्त से आवृत होने पर बार बार शीतल और उष्ण क्रिया करना चाहिये । तथा जीवनीय गणोक्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ स्नेह पान कराना चाहिये । ८६
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सक्षीरा वस्तयः क्षीर पंचमूलबलाशुतम् । : कालेऽनुवासनं तैलं मधुरौषधसाधितम् ॥
अर्थ - पित्तावृत वायु में दूध से युक्त वस्ति वृहत्पंचमूल और खरैटी डालकर औटाया हुआ दूध तथा मधुर द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ तेल इनका उपयुक्त काल में अनुवासन द्वारा प्रयोग करे ।
उक्तरोग में परिषेक | यष्टीमधुबलातैलघृतक्षीरैश्च सेचनम् । पंचमूलकषायेण वारिणा शीतलेन च ॥
अर्थ - पित्तावृत वायु में मुलहटी का तेल, बलातेल, घी, दूध, पंचमुलका काथ और शीतल जल से परिषेक करना हित है।
कफावृत वायु में चिकित्सा | कफावृते यवान्नानि जांगला मृगपक्षिणः । स्वेदास्तीक्ष्णा निरूहाश्च वमनं सविरेचनम् पुराणसर्पिस्तलं च तिलसर्षपजं हितम् ।
अर्थ - कफावृत वायु में जौ का अन्न, जांगल पशु पक्षियों का मांस, स्वेद, तीक्ष्ण निरूह, वमन, विरेचन, पुराना घी, तिल का तेल और सरसों का तेल ये सब हितकारी हैं ।
संसृष्ट वायु का उपाय । संसृष्टे कफपित्ताभ्यां पित्तमादौ विनिर्जयेत् अर्थ - कफ और पित्त द्वारा वायु के संसृष्ट होने पर प्रथम पित्त को जीतकर फिर कफवात के जीतने का उपाय करें ।
रक्तसंसृष्ट वात का उपाय | कारयेद्रक्तसंसृष्टे वाले शोणितिकीं कियाम् ।
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