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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टlanet | ( ६८२ ) अर्थ - रक्तसंसृष्ट बात में वातरक्त की चिकित्सा करना उचित है । अनावृत में कर्तव्य | अनावृते पाचनीयंवमनं दीपनं लघु । अर्थ - अनावृत वायु में पाचनीय, वमन कारक, अग्निसंदीपन और लघु औषध हितकारी होती हैं । मांसावृत वायु | स्वेदाभ्यंगरसाः क्षीरं स्नेहो मांसावृते हितः अर्थ- मांस वायु में स्वेद, अभ्यंग मांसरस, दूध और स्नेह हित हैं । सर्वस्थानावृत कर्तव्य | कफपित्ताविरुद्धं यद्यच्च वातानुलोमनम् सर्वस्थान वृते त्वाशु तत्कार्य वातरिश्वनि । अर्थ- सर्वधातुगत वायु में जो सब औपध कफ और पित्त की अविरोधी हैं तथा जो वायुका अनुलोमन करनेवाली हैं, वे सब औषध शीघ्र प्रयोग करनी चाहिये । आढयवात की चिकित्सा | प्रमेह मेदोवातघ्नमाढ्याते भिषग्जितम् । अर्थ-आढयवात में प्रमेह, मेद और वातनाशिनी चिकित्सा करनी चाहिये । सर्वधात्वाव्रतमें कर्तव्य । अनभिष्यंदि च स्निग्धं स्रोतसांशुद्धिकारणम् पाचना बस्तयः प्रायो मधुराः सानुवासना प्रसमीक्ष्य बलाधिक्यं मृदु कायविरेचनम् । रसायनानां सर्वेशामुपयोगाः प्रशस्यते । शिलाहस्य विशेषेण पयसा शुद्धगुग्गुलोः लेहो वा भाङ्गवस्तद्वदेकादशासिता सितः । | रेतस्रावृत वायु की चिकित्सा | महास्नेहोऽस्थिमज्जस्थे पूर्वोक्तं रेतसावृते अर्थ - अस्थि और मज्जागत वायु में महा स्नेह (घृत, मज्जा, वसा तेल ) तथा शुक्रावृत वायु में उन औषधों का प्रयोग करना चाहिये जो पहिले वातव्याधि में कही गई हैं । अर्थ- सम्पूर्ण धातुओं से आवृत वायु में अनभिष्यन्दी, स्निग्ध और स्रोतों को शुद्ध करनेवाली औषधें देना उचित है । पाचनसंज्ञक वस्ति, तथा मधुर द्रव्यों का अनुत्रासन, रोगी के बलके अनुसार मृदुविरेचन, रसायन अधिकार में कहे हुए संपूर्ण योग, दूध के साथ शिलाजीत और गूगल, ब्राह्मरसायनमें कहा हुआ च्यवनप्राश, तथा एकादशसितासित नामक औषध का देना हित है | सूत्रावृतमें कर्तव्य | मूत्रावृते मूत्रलानि स्वेदा उत्तरषस्तयः ६१ अर्थ- मूत्रावृतवायु में खीरा आदि मूत्रवारक तथा स्वेद और उत्तरवस्ति हित है । वर्चसावृतमें चिकित्सा | एरंडतैलं वर्चःस्थे बस्तिस्नेहाश्च भेदिनः । अर्थ- पुरीषावृत वायुमें अरंड का तेल, तथा भेदक वस्ति और स्नेहका प्रयोग करना चाहिये | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० २२ For Private And Personal Use Only अपानावृत में कर्तव्य | वातानुलोमनं कार्थ मूत्राशयविशोनधम् । अपने त्वावृते सर्व दीपनं ग्राहि भेषजम् । अर्थ - अपानवायु जिसके द्वारा आवृत हो उसमें अग्निसंदीपन, ग्राही, वातानुलोमनकर्ता और मूत्राशय को शुद्ध करनेवाले सव काम करने चाहियें । सामान्य कर्तव्य | इति संक्षेपतः प्रक्तिमावृतानां चिकित्सितम्
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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