SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२३८] अष्टांगहृदये। ततः शोफरुजापाकदाहानाहानवाप्नुयात् ॥ व लगावें हाथ से दावकर दर्द न करै, न ' अर्थ-उचित काल में प्रमाण के अनुसार खुनावै, और वहुत सावधानी से घाव की किया हुभा भोजन शीघ्र पचजाता है इस | रक्षा करै, व्याधि के दूर हो जाने की आशा लिये घाववाले को ठीक समय में थोडा और वांधकर बृद्ध और ब्राह्मणों के मुख से मनोपथ्य भोजन देना चाहिये । क्योंकि भोजन रंजनी और अच्छी अच्छी बातें सुनाकरे, के न पचने से वातादिदोषों का बलवान्। ऐसा करने से घाव शीघ्र भरजाता है । क्षोभ होजाता है और उस क्षोभ से सूजन __घाव के धोने का नियम । वेदना, पाक, दाह और आनाह उत्पन्न तृतीयेऽह्नि पुनः कुर्याद्रणकर्मचपूर्ववत् । होजाते हैं। प्रक्षालनादि दिवसे द्वितीये नाचरेत् ब्रणमें नवधान्यादि का त्याग । तथा। नवंधान्यतिलान् माषान् मद्यमांसंत्वजांगलम् | तीब्रव्यथो विग्रथितश्चिरात्सरोहति व्रणः । क्षीरेक्षविकृतीरम्लं लवण कटकं त्यजेत् ॥ । अर्थ-तीसरे दिन पट्टी खोलकर घाव यञ्चाऽन्यदपि विष्टंभि विदाहि गुरु शीतलम्। को पहिले की तरह धोडाले, परन्तु दूसरेवर्गोऽयं नवधान्यादिब्रणिनः सर्वदोषकृत् ॥ दिन व्रण को कभी न खोलै क्योंकि ऐसा मद्यं तीक्ष्णोष्णरुक्षाम्लमाशु व्यापादयद्रणम् __ अर्थ-नये चांवल, तिल, उरद, मद्य, करने से घाव में तीन वेदना होती है और जांगलमांस को छोडकर अन्यमांस, दूधके । गांठ पैदा हो जाती है इस से घाव के पुरने विकार, ईखके विकार, वटाई, नमक, कटु | में बहुत समय लगता है। द्रव्य तथा और भी विष्टंभी, विदाही, भारी, अतिस्निग्धादि वत्तियों का निषेध । शीतल द्रव्यों को छोडदेना चाहिये, क्योंकि स्निग्धां रुक्षांश्लथां गाढां दुय॑स्तां च विकेये सब द्रव्य घाववाले रोगी के दोषों को शिकाम् । वर्ण न दद्यात्कल्कं च। कुपित करते हैं। और तीक्ष्ण, उष्णवीर्य स्नेहाक्लेदो विवर्धते ॥ रूक्ष और अम्ल मद्य शीघ्रही व्रणको दूषित मांसच्छेदोऽतिरुगौक्ष्याहरणं शोणितागमः। करता है इसलिये यह विशेष रूप से त्यागने श्लथातिगाढदुासैणवविघर्षणम् । के योग्य है। ____ अर्थ-घाव के भीतर जो बत्ती भरीजाघाव में वालोशीर से व्यजनादि । ती है वह बत्ती बहुत चिकनी बहुत रूखी घालोशीरैश्च वीज्यतन चैनं परिघिट्टयेत् ॥ बहुत शिथिल ( लचलची ) बहुत गाढी नतुदेन च कंडूयेचेष्टमानश्च पालयेत्।। स्निग्धवृद्धद्विजातीनांकथाः शृण्वन्मनःप्रिया दुन्येस्त ( बुरी रीति से लगाई हुई ) न आशावान् व्याधिमोक्षाय क्षिप्रंव्रणमपोहति। होनी चाहिये । इसी तरह जो लेप लगाया .. अर्थ- बालों के चमर वा खस के पंखे जाता है वह भी अति स्निधादि गुणों से से घाव की हवा कर, व्रण पर बार वार हाथ | हीन होना चाहिये क्योंकि अतिरनेह से For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy