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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ! (२३९ ) खेद की वृद्धि होती है, आतरूक्ष से मांस । अर्थ-जो व्रण किसी प्रकार की चोट छिलजाता है सीव्र वेदना होने लगती है | लगने से हुए हैं और जिनके मुख चौडे हो घाव फटकर रक्त निकलने लगता है । अति | गये हैं ऐसे तत्काल के व्रगों को सी देना शिथिल, अतिगाढ और दुास से घावका चाहिये बहुत दिनके पुराने घाव नहीं सीने मुख रिगड खा जाता है। चाहिये । मेद से उत्पन्न प्रन्थि को लिखित घावमें बत्ती लगाने का कारण । | करके सुई से सीना चाहिये । छोटी कर्णसपूतिमांसंसोत्संगसगति पूयगर्भिणम्। | पाली, तथा मस्तक, नेत्रकुट, नासिका, घणं विशोधयेच्छीघ्र स्थिताातर्विकेशिका। ओष्ठ, गंड, कान, ऊरु, वाहु, ग्रीबा, ललाट, .. अर्थ-घावके भीतर बत्ती भरने से सडा । अंडकोष, स्फिक्, लिंग, गुदा, उदर, आदि हुआ मांस ऊंचा होजाता है घावकी नाली गंभीर स्थान तथा अचल मांसल स्थानमें भीतर से पुरती चली आती है और भीतर जो क्षत होता है, उसको सुई से सीना की पांव शीघ्र विशोधित होजाती है। चाहिये । कञ्चोंमें नश्तर लगाने का उपचार। किन्तु वंक्षण, कक्षा तथा अल्प मांस व्यम्लं तु पाटितंशोफंपाचनैः समुपाचरेत्। वाले चलायमान स्थानों में हुए व्रण तथा भाजनैरुपनाहैश्च नातिव्रणावरोधिभिः॥ जिनसे वायु निःश्वसित होती हो, तथा ____ अर्थ-सूजन के बिना अच्छी तरह पके | जिनके भीतर शल्य हो, अथवा जो क्षार, अर्थात् अपक्व अवस्थामें नश्तर लगादिया | विष वा अग्नि से उत्पन्न हुए हैं ऐसे घावों वा हो तो उसी प्रकार के सूजन को पकाने को सीना उचित नहीं है। वाले अन्नपान तथा वैसे ही उपनाहादि सीने का पूर्व कर्म। द्वारा चिकित्सा करै परन्तु व्रणके अत्यन्त सीव्येच्चलास्थिशुष्कास्रतृणरोमापनीयतु ॥ विरोधी सूजन को पकानेवाले अम्ल कटु, प्रलंबिमांसं विच्छिन्नं निवेश्य स्वनिवेशने । तीक्ष्ण, उष्ण और लवणप्राय भोजनों का संध्यस्थ्यस्थितेरक्त स्नाय्वा सूत्रेण वल्कलैन सेवन न करै । सीव्येन्नदूरेनाऽसन्ने गृह्यान्नाऽल्पं नवाबहु । अर्थ-भपने स्थान से चली हुई हड्डी, चौडे मुखवाल व्रणों का सीवन । घाव में लगा हुआ सूखा रुधिर, और तृण सद्यःसद्योबणान् सीव्येद्विवृतानभिघातजान् | रूप रोम को घाव से हटाकर व्रण को सीमें मेदोजान् लिखितान्ग्रंथीन् हस्वाः पालीश्च कर्णयोः ॥ तथा लटके हुए मांस को तथा संधि की शिरोक्षिकूटनासौष्टगंडकर्णोरुवाहुष्टु । अस्थियों को अपने अपने स्थान में संनिप्रविाललाटमुष्कस्फिोटपायूदरादिषु ॥ वशित करके रुधिर के बहने को रोक कर गंभीरेषुप्रदेशेषु मांसलेवचलेषु च। व्रण को सीमे, घाव को सीने के लिये स्नायु न तु वंक्षणकक्षादावल्पमांसचले ब्रणान् ।। वायुनिर्वाहिणःसल्यगर्भान्क्षारविषाग्निजान् (तात ) का सूत्र वा बल्कल के बने हुए For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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