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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . (२४०) अष्टांगहृदये । म. २९ सूत्र अर्थात् धागे से घाव के दोनों किनारों | हैं क्षौमबस्त्र शीतवीर्य है, । तथा शाल्मलीको मिलाकर सीडाले । घाव के किनारों के | का वस्त्र वा सूत, कपास, स्नाय और वल्कल बहुत पास वा बहुत दूर न सीना चाहिये | ये शीतोष्ण वीर्य हैं । तथा घाव का अंश कम वा अधिक भी प्र- कफादि जन्य ब्याधि में बंधन । हण करने में न आवै । ताम्रायनपुसीसानि ब्रणे मेदकफाधिके । रोगी को आश्वासन । भंगेच युज्यात्फलकं चर्मवल्ककुशादि च । सांत्वायत्वा ततश्चात व्रणे मधुघृतद्रुतैः ॥५४॥ अर्थ-भेद और कफाधिक घावों में लेअजनक्षौमजमीफलिनीशल्लकीफलैः। खन कर्म के लिये तांवा, रांग और सीसा सरोनमधुकैर्दिग्धे युज्यादधादि पूर्ववत् ॥ | प्रयोग करना चाहिये । टूटे हुए स्थानों में ___ अर्थ-सीने के पीछे रोगी के मुख पर भी ताम्रादि का प्रयोग करना चाहिये । ठंडे जल के छींटे मारै और पंखे से हवा करे, इस तरह आश्वासन करके सुर्मा, जले इसी तरह फलक, चर्म, वल्कल और बांस हुए वस्त्र की राख, प्रियंगु और शल्लकी के | आदि का भी प्रयोग करे। फल, लोध और मुलहटी इनसबको पीसकर वंधन का प्रकार । स्वनामानुगताकाराबंधास्तुदशपंचच.५९। घी और शहतमें मिला घाव लेपकरे फिर पहिले | | कोशस्वस्तिकमुत्तोलीचीनदामानुवेस्लितम् की तरह कपडे की पट्टी आदि बांध देवै ।। खट्वाविबंधस्थगिकावितानोत्संगगोफणाः॥ घान का फिर सीमना। यमकं मंडलाख्यं चपंचांगी चेति योजयेत् । व्रणो निःशोणितौष्ठो याकिंचिदेवावलिस्यतम् यो यत्र सुनिविष्टःस्यात्तं तेषां तत्र बुद्धिमान्॥ संजातरुधिरं सीम्चेत्संधानं ह्यस्य शोणितम् । अर्थ - शरीरके* अवयव विशेषके अनु अर्थ-यदि घाव के किनारों पर रुधिर | सार वंधन पन्द्रह प्रकार के होते हैं । यथा नहो तो उस घाव को शस्त्र से थोडा सा ___x कोश चमडे का बनाया जाताहै यह खरच कर जब रुधिर निकल आवे तब सी उंगली के पोरुओं में बांधा जाता है। स्वदेना चाहिये क्योंकि रुधिर ही व्रण को पु-| स्तिक संधि, कूर्च, भृकुटी, स्तनों के मध्य राने वाला है। में, कक्षा अक्षि, कपोल और कानमें । उ त्तोली ग्रीवा और मेद में, चीन अपांग में । पट्टी बांधने का स्वरूपादि। दाम संधि और वंक्षण में, अनुवेल्लित शा बंधनानि तु देशादीन्वीक्ष्य युजीत तेषुच । खाओं में, खट्वा हनु, संधि और गंडमें। आविकाजिनकौशयमुष्णं क्षीमंतु शीतलम्॥ विवध उदर, ऊरु और पीठम । स्थगिक शीतोष्णं तूलसंतानकार्पासस्नायुवल्कजम् ॥ अंगूठा, उंगली, मेढ, अत्र और मूत्र वृद्धि ___ अर्थ-देश, काल और सात्म्यादि को में । वितान मूर्खादिमें । उत्संग लंबे वाहादेखकर भेड वा मग आदि में से किसी दिकमे । गोफण नासा, ओष्ठ चिबुक अस्थि | में । यमक जुड़े हुए दो घाबों में । मंडल एक का चर्म घाव पर बांधे मेंढे वा मृग का | गोल अंगों में और पंचांगी जत्रु से ऊपर के धर्म रेशमी वस्त्र, ये तीनों बंधन उष्णवीर्य । अंगों में बांधा जाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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