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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८८] अष्टांगहृदय । कोष्टगत अवेध्य सिराओंकावर्णन। | य में चार । अपस्तंभ नामक मर्म में एक त षोडशादिगुणाः श्रोण्या तासां वैद्वै तु वंक्षणे था अपालाप मर्ममें एक । इसतरह १४ सिरा देद्वे कटीकतरुणे शस्त्रेणाष्टौ स्पृशेन्न ताः । नहीं बेधी जाती है । इसतरह कोष्ठगत १३६ पार्श्वयोःषोडशैकैकामूर्ध्वगां वर्जयेत्सिराम्। द्वादशद्विगुणाः पृष्ठे पृष्ठवंशस्य पार्श्वगे। । सिराओं में ३२ सिरा अवेध्य है ।। द्वे वे तत्रोर्ध्वगामिन्यो न षस्त्रेण परामशेत जत्रुसे ऊपरकी सिराओं का वर्णन । पृष्ठवज्जठरे तासां मेहनस्योपरि स्थिते। ग्रीया की अवेध्यसिरा। रामराजीमुभयतो दे द्वे शस्त्रेण न स्पृशेत्॥ | विायां पृष्टवत्तासां नीले मन्ये कृकाटिके। चत्वारिंशदुरस्यासां चतुर्दश न वेधयेत। । विधुरे मातृकाश्चाष्टौ षोडशेति परित्यजेत्। स्तनरोहिततन्मूलहरये तु पृथग्द्वयम् ॥२५॥ अर्थ-पीठकी तरह प्रीवा में भी चौवीस अपस्तंभाख्योरेको तथापालापयोरिपि। । | सिरा होती हैं, इनमें से दो नीला, दोमन्या, ___ अर्थ-अंतराधि भागमें सब सिरा १३६ / दो कृकाटका, दो विधुरा और आठ हैं, इनमेंसे ३२ सिरा श्रोणिके अवयवों में है | मातृका, ये १६ सिरा अवेध्य हैं। जिनमें दोनों अंडकोषोंमें स्थित दो दो हनुगत अवेध्यसिरा। अर्थात् चार और पाठके बांसे के दोनों ओर | हन्वोः षोडश तासां द्वे संधिवधनकमणि । श्रोणीविभाग में स्थित कटीक और तरुण ना अर्थ-ठोडी के दोनों ओर सोलह सिरा मक दोनों मोकी दो दो अर्थात् चार सिरा | । हैं, इनमें से ठोडी की संधियों को बांधने इस तरह ये आठ सिरा अवध्य हैं। वाली दो सिरा अवेध्य हैं । किसी किसीका दोनों पसलियोंमें १६ सिरा होती हैं । इ यह मत है कि ग्रीवा की १६ सिरा प्रीवा की सिराओं के अंतर्गत हैं परन्तु गयदासान में से हरएक पसलीमें एक एक ऊपरको जानेवाली सिरा अवेध्य होती हैं। चार्य इन १६ सिराओं को पृथक् ही मानते हैं। . पीठमें २४ सिरा होती है इनमेंसे पाठके जिहवागत अवेध्यसिरा। बांसके दोनों ओर दो दो सिरा ऐसी है जो | जिह्वामं हनुवत्तासामधो द्वे रसवोधने । उपरको जाती है । इन चार सिराओं को न | द्वे च वाचः प्रवर्तिन्यो। बेधना चाहिये। । अर्थ-ठोडी की तरह जिह्वा में भी पाठके सदृश उदरमें भी २४सिरा होती है | १६ सिरा हैं, इनमें से जिह्वा के नीचेकी इममेंसे पुंजननेन्द्रियके ऊपर रोमराजी अर्थात् दो सिरा जिनसे मधुरादि रसों के स्वादका रोमों की रेखाके दोनों ओर वाली दो दो सि- ज्ञान होता है और निवाके ऊपर वाली रा अर्थात् ४ सिरा अवेध्य होती है। दो सिरा जो वचःप्रवर्तनी है अर्थात् जिनके वक्षःस्थल अर्थात् छातीमें ४० सिरा होती | द्वारा बोला जाता है, ये चारों सिरा अवेध्य है। इनमेंसे १४ सिरा अवेध्य होती है जैसे | हैं । सुश्रुत में जिह्वागत सिरा ३६ और स्तनमूलमें चार, स्तन रोहित में चार । हृद- J गयदास ने ५८ मानी हैं । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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