SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1022
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० ३५ उत्तरस्थान भाषाकासमेत । (९२१ ) दुष्टानरोगी तृडरोचकातः ॥ ३४॥ दषीविष पीडित के लक्षण । मूर्छन् वमन गद्गदवाक् विमुझन् । | प्रग्याताजीर्णशीताम्रदिवास्वप्नंहिताशनैः भवेष दूग्योदरलिंगजुष्टः। | दुष्टं दूषयते धातूनतो दूषीविषं स्मृतम् । आमाशयस्थे कफवातरोगी पकाशयस्थेऽनिलपिसरोगी ॥ ३५ ॥ ___ अर्थ-पुरोवात, अजीर्ण, शीतलता, अर्थ-मो विष बहुत पुराना होगया है | बादल, दिवानिद्रा, अहित भोजन इन वा जो विषनाशक औषधियों के प्रयोग कारणोंसे दूषित होकर वह रसरक्तादि धातुओं द्वारा हतवीर्य होगया है, जो दावाग्नि, वायु को दूषित कर देता है इससे इसे दूषीविष वा धूप के कारण शोषित होगया है, अथवा कहते हैं। जो स्वाभाविक सुन्दर गुणोंसे युक्त नहींहै दूषी बिषपर अवलेह । वह दूषीविष कहलाता है । दूषीविष वीर्य में दूषीविषार्त सुस्विन्नमूचाधश्चशोधितम दूषीविषारिमगंद लेयेन्मधुना प्लुतम् । अल्प होता है, इससे देखने में नहीं भाताहै अर्थ-दूषी विषप्ते पीडित रोगी को स्वेद यह कफ से आवृत होने के कारण देह में द्वारा स्वेदित और वमन विरेचन द्वारा उपर बहुत काल पर्य्यन्त स्थिर रहता है, दूषी नीचे के मार्गों से संशोधित करके दूषी विविष से पीडित मनुष्य का पुरीष फट जाताहै और उसके वर्ण में विकृति होनाती है, रक्त पनाशक औषधों को शहत में मिलाकर देवे में दुष्टि, पिपासा, भरुचि, मूछी, वमन, दूषीविषनाशक औषध । पिप्पल्यो ध्यामकं मांसारोध्रमेला सुवर्चिका बाणी में गद्गदता, मोह, तथा, दूष्योदर तथा, दूण्यादर कुटनटं मतं कुष्टं यष्टी चंदनगैरिकम् ।। के लक्षणों से जुष्टता ये सब उपद्रव उपस्थित दृषीविषारिनाम्नाऽयं चान्यत्राऽपि बार्यते। होते है । दूषीविषके आमाशय में स्थित होने ___ अर्थ-पीपल, रोहिषतृण, जटामांसी, पर कफ वात रोग तथा पकाशय में स्थित लोध, इलायची, सज्जीस्वार, सौनापाठा, होने पर वात पित्त रोग पैदा होजाते हैं। तगर, कूट, मुलहटी, चन्दन और गेरू, रसस्थ विष के लक्षण । इन सब द्रव्यों को कूट पीसकर गोलियां भवेत्ररो ध्वस्तशिरोरुहांगो वना लेवै । इसका नाम दृषीविसारि है विलूनपक्षः स यथा विहंगः । स्थितं रसादिष्वथवा विचित्रान् अर्थात विषेश करके दूषी विषके दूर करनेमें करोति धातुप्रभवान् विकारान् ॥३६॥ प्रयुक्त होती है, परन्तु अन्य रोगों में भी अर्थ-दूषी विष से पीडित मनुष्यों के । इसका प्रयोग किया जाता है। . सिर के बाल उड़कर यह ऐसा होजाता है, विषलिप्तशस्त्रसे विरके लक्षण । जैसे पंखहीन पक्षी, अथवा रसादि धातों विषदिग्धेन षिद्धस्तु प्रताम्यति माना। विवर्णभावं भजते विषादं चाशु गच्छति। में स्थित होकर धातु म हानवाल भनक कीटैरिवावृतं चास्य गात्रं चिमिचिमायते प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है। श्रोणिपष्ठशिरः स्कंधसंधयः स्युः सवेदना For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy