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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२४) अष्टांगहृदय । म. ३५ बली (कनेर के सदृश पुष्पवाली) गिलोय एष चंद्रोदयो नाम शांतिः स्वस्त्ययनं परम् हरड, शेलु, ( व्हेसुआ ) सिरस, किणही, अर्थ-रसौत, तगर, कूठ, हरिताल, हलदी,दारुहलदी, वटमाक्षिक, दोनों पुनर्नवा मनसिल, प्रियंगु, त्रिकुटा, स्पृक्का, केसरत्रिकुटा, दोनों कटेरी, दोनों सारिवा, खरैटी सहित नागपुष्प, हरेणु, मुलहटी, जटामांसी, इनके काढमें यवागू पकाकर ठंडा करले । । गोरोचन, काकमालिका, सरलकाष्ठ, राल, फिर इस में घी और शहत मिलाकर देवे सोंफ,केसर, खरैटी, तमालपत्र, तालीस पत्र, तथा वा के बीचमें सब प्रकारकी विषनाशनी भोजपत्र, खस,हलदी और दारुहलदी इन सब क्रिया करै । द्रव्यों को संग्रह करले । फिर एक कन्या को पेयाका विधान ॥ उपवास कराके पुष्यनक्षत्र में स्नान कराके तद्वन्मधूकमधुकपाकेसरचंदनैः ॥ २३ ॥ सफेद वस्त्र धारण कराके ब्राह्मणों का अर्थ-महुआ,मुलहटी, कमलकेसर और पूजन कराके उक्त द्रव्यों को उस कन्या से रक्तचंदन इनके फाढे पेया तयार करके पिसवाचे, पीसते समय वैद्य जितेन्द्रिय होठंडी होने पर घी और शहत मिलाकर कर 'नमःपुरुषसिंहाय ' से लेकर स्वाहा तक प्रथम मंत्र का पाठ करता रहे । पिस चन्द्रोदय औषध । जाने पर ' ॐ हरिमावि स्वाहा , इस दूसरे मंत्र का पाठ करे । इस चन्द्रोदय अंजनं तगरं कुष्टं हरितालं मनः शिला। फलिनी त्रिकटु स्पृक्का नागपुष्पं सकेसरम् ॥ नामक अगद को पान, नस्य, अभ्यंजन हरेणु मधुकं मांसी रोचना काकमालिका। और आलेपन द्वारा प्रयोग करे तथा पहुँचे श्रीवेष्टकं सरसः शताहा कुंकुम वला ॥ पर वांध दे, यह औषध शांति स्वरूप और तमालपत्रतालीसभूजोशीरे निशाद्वयम् । परम स्वस्त्ययन है । इसके सेवन से सब फन्योपवासिनी माता शुलवासामधुदुतैः॥ द्विजानभ्यर्च्य तैः पुष्पैः कल्पयेदगदोत्तमम् प्रकार के विष, वेतालग्रह, कार्मण क्लेश वैद्यश्चात्र तदा मंत्र प्रयतात्मा पठेदिमम् ॥ मारकरोग, दुर्भिक्ष, युद्ध और बज्रपात का नमः पुरुषार्सहाय नमो नारायणाय च । भय ये सब दूर होजाते हैं। यथासौ नाभिजानाति रणे कृष्णपराजयम् एतेन सत्यवाक्येन अगदो मे प्रसिद्यतु । दूषीविष पीडित के लक्षण । नमो पैडूर्यमाते हुलुहलु रक्ष मां सर्वेविषेभ्यः जीर्ण विषघ्नौषधिहितं पा गौरि गांधारि संडालि मातगि स्वाहा । दावाग्निवातातपशोषित वा। पिटे च द्वितीयो मंत्रः स्वभावतो या सुगुणेन युक्त मो३म्हरिमायि स्वाहा॥ दूषीविषाख्यां विषमभ्युपैति ॥ ३३ ॥ अशेषविषवेतालग्रहकार्मणपाप्मसु।। वीर्याल्पभावादधिभाव्यमेतमरकव्याधिदुर्भिक्षयुवाशनिभयेषु च ॥ कफावृतं वर्षगणानुवंधि। पाननस्यांजनालेपमणिबंधादियोजितः। । तेनादितो मिनपुरीषवर्णो For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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