________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ०५
चिकित्सिस्थान भाषाटीकासमेत |
(५०९)
-
सकारी अन्नपान देवे अथवा एक साल के | पीनसादि पर बकरे का मांसरस । पुराने शालीचावल, साठीचावल, गैहूं, जौ, सपिप्पलीकं सयवं सकुलत्थं सनागरम् ॥ और मूंग देवे ।
सदाडिमं सामलकं स्निग्धमाज रसं पिवेत् ।
तेन षड्विनिवर्तते विकाराः पीनसादयः ११ ॥ राजयक्ष्मा में मांससेवन । । आज क्षीरघृतमांसंक्रव्यान्मासंचशोषजित् ।।
____ अर्थ-पीपल, जौ, कुलथी, सौंठ, अनार काकोलूकबृकद्वीपिगवाश्वनकुलोरगम् ॥६॥ - आर आमला डालकर घृत मिला कर तयार गृधूभासखराष्ट्रं च हितं छद्मोपसहितम् । किया हुआ बकरी के मांसका रस सेवन ज्ञातं जुगुप्सितं तद्धि छर्दिषे न बलौजसे ॥ करनेसे पीनस. श्वास, खांसी, कंधोंकादर्द, अर्थ-बकरी का घी, दूध और मांस तथा
सिरका दर्द. और स्वरवेदना, ये छः रोग मांसाहारी जीवों का मांस राजयक्ष्मामें हितहै
नष्ट होजातेहैं। तथा काक, उल्लू, भेडिया, गेंडा, गौ,घोडा
स्रोतशोधनार्थ जीर्ण मद्यपान । नकुल, सर्प, गिद्ध, चील, गधा, ऊंट, इन के मांस राजरोग में हितकारकहै, परन्तु ऐसे
पिवेच्च सुतरां मधु जीर्ण स्रोतोबिशोधनम् ।
पित्तादिषु बिशेषेण मध्वरिष्टात्सवारुणीः॥ धोखे से देने चाहिये कि रोगी को मालूम
सिद्धं वा पंचमूलेन तामलक्याथवा जलम् । नहो । रोगी को इन घृणित मांसों का हाल | पर्णिनीभिश्चतसृभिर्धान्यनागरकेण वा ॥ मालूम होजानेसे वमन होजाती है और बल | कल्पयेञ्चानुकूलोऽस्य तेनान्नं शुचि यत्नवान् । तथा ओजकी बृद्धि नही होतीहै।
अर्थ-स्रोतों को विशुद्ध करने के निमित्त पित्तकफादि में हित द्रव्य । अत्यन्त पुराना मद्यपान करना चाहिये, और मृगाद्याः पित्तकफयोः पवने प्रसहादयः। पित्त, कफवातमें मधु, अरिष्ट और वारुणी वेसवारीकृताः पथ्या रसादिषु च कल्पिताः | का सेवन करना चाहिये, अथवा पंचमूलके भृष्टाः सर्षपतैलेन सर्पिषा वा यथायथम् ।
साथ सिद्ध किया हुआ वा मभ्यामलक के सिका मृदवः स्निग्धा मृदुद्रब्याभिसंस्कृताः हितामौलककौलत्थास्तद्वयूषाश्च साधिताः
साथ अथवा चारों पर्णियों में शालपर्णी अर्थ-राजयक्ष्मावाले रोगी को यदि पित्त | पृश्निपर्णी मुद्गपर्णी, और माषपर्णी, द्वारा और कफकी अधिकता हो तो मृग, विष्किर सिद्ध किया हुआ अथवा धनिये और सोंठ और प्रतुद, तथा वातकी अधिकतामें प्रसहा- के साथ सिद किया हुआ जलपान करावै । दि जीवोंके मांस हितकारी है । इन मांसों अनुकूल, यत्नवान और पवित्र परिचारक से वेसवार और मांस रसादि प्रस्तुत करके द्वारा पंचमूलादि के जलसे सिद्ध किये हुए देना चाहिये अथवा देशकाल के अनुसार अन्न रोगी को देवे ॥ सरसों के तेल वा घृतसे भून लेवे, अथवा
राजयक्ष्मा पर घृत । रसीले, मदु, स्निग्ध तथा सैंधवादि द्रव्योंसे
दशमलेन पयसासिद्धं मांसरसेन वा ।१४॥ संस्कृत मूली और कुलथी से बनेहुए यूष बलागर्भ घतं योज्यं ब्यान्मांसरसेन वा। हितकारी होतेहै ।
| सक्षौद्रं पयसा सिद्ध सर्पिर्दशगुणेन वा।१५।
For Private And Personal Use Only