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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ४ www. kobatirth.org कल्पस्थान भाषाटीकासमेत । जीवंतिमेदधियरीविदारी वीराद्विका कोलिकसेरुकाभिः ॥ १३ ॥ सितोपलाविक पद्मरणुकोत्पलपुंडरीकैः । लोहात्मगुप्ता मधुयष्टिकाभिनगाह जातक चंदनैश्च ॥ १४ ॥ पिटेर्वृक्षौद्रयुतैर्निरूह सवं शीतलमेव दद्यात् । प्रत्यागते धन्वरसेन शालीन् क्षीरेण वाऽद्यात्परिषिक्तगात्रः ॥ १ ॥ दाहातिसारप्रहरात्रपित्तहत्पांडुरोगाविषमज्वरं च ! सगुल्ममूत्रग्रहका मलाक्षीन् सर्वमयान् पित्तकृतान्निहति ॥ १६ ॥ अर्थ - रास्ना, बासक, मजीठ, अनंतमूल खोटी, लघु पंचमूल, तृणपंचमूल, कालीसारिवा, रक्तचंन्दन, पदमाख, ऋद्धि, मुलहटी और लोध, प्रत्येक आधा पल, इनका काथ करले,इसमें आधा आढक दूध पकावै, जब दूध शेषरहे तब उतारकर छानले । फिर इसमें जीवंली मेदा, ऋद्धि, सितावर, बिदारीकंद, काकोली खीरकाकोली, कसेरू, शर्करा, जीवक, कमलकेसर, प्रपौंडरीक, उत्पल, पद्म, अगर, कमाच, मुलहटी, लक्षणामूल, मुंजातक और रक्तचंदन इन सब द्रव्यों का कल्क तथा घी शहत और सेंधानमक मिलाकर ठंडा होने पर वस्तिद्वारा प्रयोग करें । वस्तिके प्रत्यागत I होनेपर रोगी को परिषिक्त करके सात्म्य के अनुसार जांगल मांसरस के साथ अथवा दूध के साथ शाली चांवलों का भात खाने को दे । इस वस्तिसे दाह, अतिसार, प्रदर रक्तपित्त, हृद्रोग, पांडुरोग, विषमज्वर, गुल्म मूत्राघात, और कामलादि पित्तज रोग सब नष्ट हो जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७०३ १ कफजरोगों में निरूहण ॥ कोशातकारग्वधदेवदारुमूवीश्वदंष्ट्राकुटजार्कपाठाः । पक्त्वा कुलत्थान्वृहतीं च तोये रसस्य तस्य प्रसृता दश स्युः ॥ १७ ॥ तान् सर्षपैलामदनैः सकुटैरक्षप्रमाणः प्रसृतैश्च युक्तान् । क्षौद्रस्य तैलस्य फलाह्वयस्य क्षारस्य तैलस्य ससर्पिषश्च ॥ १८ ॥ दद्यान्निरूहं कफरोगिताय मंदाग्नये चाशनविद्विषे च । अर्थ - घीया तोरेई, अमलतास, देवदारू, मूर्वा, गोखरू, इन्द्रजौ, आक, पाठा, कुलश्री और कटेरी इन सब द्रव्यों को इकट्ठा करके इनमें इतना जल डाले कि चौथाई शेष रहने पर दस प्रसृत रहजाय, फिर इस काथमें सरसों, इलायची, मैंनफल, और कुडा इनका कल्क प्रत्येक दो तोले, तथा मधु और मैनफल का तेल, क्षारतेल और घी इनमें से प्रत्येक दो पल मिला उस रोगी को निरूहण देवे जिसकी अग्निमंद पडगई हो और भांजन में अरुचि हो | सुकुमारों को निरूहण ॥ वक्ष्ये मृदू स्नेहकृतो निरूहान सुखोचितानां प्रसृतैः पृथक् स्युः ॥ अथेमान्सुकुमाराणां निरूहान् स्नेहनान्मृदून कर्मणा विप्लुतानां तु वक्ष्यामि प्रसृतैः पृथक् ॥ अर्थ - अब हम सुकुमार और सुखी मनुष्यों के संबंध में परिमित प्रसृत और मृदु स्नेहन निरूहों का पृथक् पृथक् वर्णन करेंगे । जो सुकुमार है और वमनादि कर्मसे भ्रष्ट हैं उनके संबंधवाली स्नेहन और मृदु निरूहण पृथक् २ प्रसृति परिमाण से वर्णन करेंगे । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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