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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ शारीरस्थान भाषाटीकासमेत् । (२५७) साधन लिखे हैं उन सबको भी उत्तरवस्ति । को जल से धोने पर वस्त्र में दाग नहीं सहित काम में लाना चाहिये । रहता है। ऐसा आर्तव सद्गर्भ की उत्पत्ति शुद्ध शुकार्तव के लक्षण । करता । शुक्रंशुक्लं गुरु स्निग्धं मधुरं बहुलं बहु।। घृतमाक्षिकतैलाभं सदर्भाय गर्भस्थित होने के पहिलेकी कर्तव्यता। आर्तवं पुनः ॥१८॥ शुद्धशुक्रात स्वस्थं सरक्तं मिथुनं मिथः १९ लाक्षारसशशास्राभं धौतं यच्च विरज्यते । | स्नेहैः पुंसवनैः स्निग्धं शुद्धं शीलितबस्तिकम् - अर्थ-शुक्रार्तव में शुक्र प्रधान है इस ___ अर्थ-शुद्ध शक और आर्तववाले जो लिये शुक्र शब्द का प्रयोग पहिले किया | किसी प्रकार के रोग के लेशमात्र से भी गया है विशुद्ध शुक्र * सफेद,भारी,चिकना | आक्रांत न हों आपस में एक दूसरे को मिष्ट, गाढा, अधिक तथा घृत, शहत | देखकर अनुरागयुक्त हों । वमन विरेचनादि और तेल की आकृतिवाला होता है, इसी से | से शुद्ध हो चुके हों अभ्यासपूर्वक जो वस्ति सुंदर गर्भ की उत्पत्ति होती है । ग्रहण करते रहे हों ऐसे दोनों स्त्री पुरुषों _ विशुद्ध रज लाख के रस के सदृश वा | को पुंसवन * स्नेह से स्निग्ध करै । गोठा के मधिर के समान होता है इस परुषका उपक्रम । नरं विशेषात्क्षीराज्यमधुरौषधसंस्कृतैः २० xयहां क्षीण आर्तबकी विकित्सा नहीं अर्थ-विशेष करके पुरुषको जीवनीयादि कही गई है उसको अपनी बुद्धिसे विचार कर करना चाहिये और जैसे क्षीण शुक्रमें वीर्य | | गणोक्त मधुर औषधियों से सिद्ध किये हुए को बढानेवाली क्रिया की जाती है बैसेही दूध और घी का पान कराता रहे। क्षीण आर्तवमें रजको बढानेवाली क्रिया स्त्रीका उपकम । करना चाहिये। ___ + आहार कारस अच्छी तरह परिणत | नारीतैलेन माषैश्च पित्तलैः समुपाचरेत् । होकर अर्थात् रूपांतर को धारण करता ___अर्थ स्त्री को तैल, उरद और पित्तहुआ क्रम से मज्जा में पहुंच जाता है तब | कारक द्रव्यों का विशेष रूपसे सेवन कराता उस रस का सारभूत यह शुक्र कहलाता | रहे । है जैसे दूपसे दही औरदहसिवृत,और ईखके गर्भग्रहण का काल । रस से गुड बनता है । यह शरीर में शुक्र के धारण करने वाली कला का आश्रय क्षामप्रसन्नवदनां स्फुरच्छ्रोणिपयोधराम् ॥ लेकर सर्वांग में व्याप्त रहता है परन्तु । स्रस्ताक्षिकुक्षिं पुंस्कामा विद्यादृतुमती. इसका विशेष स्थान मज्जा अंडकोष और स्त्रियम् । स्तन हैं उन में आल्हादकता होने से | अर्थ-गुख में कृशता के हेतु बिना यह इकट्टा होकर अंग प्रत्यंग से निकल पडता है । घृत के समान होने से गर्भ ____x यथा अभीप्सित गर्भोत्पादक फः गौरवर्ण, शहत के समान होने से गर्भ / घृत और महाकल्याणकादि घृतपान द्वारा याववर्ण और तेल के समान होने से गर्भ / जो गर्भिणी का संस्कार किया जाता है उसे कृष्णवर्ण होता है। .. | पुंसवन कहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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