SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२५६) अष्टागहृदये। अ० १ अनार और अर्जुन इनसे सिद्ध किया हुआ | पुरीषसंज्ञक शुक्रकी चिकित्सा । घृत अथवा असनादि गणोक्त द्रव्यों के द्वारा / संशुद्धो विद्प्रभेसपिहिंगुसेव्यादिसाधितम् सिद्ध किया हुआ घृत पान करावै ॥+ | पिवेत् अंथिसंज्ञक शुक्रकी चिकित्सा ।। अर्थ-जिस रोगीका मल विष्टाके सदृश पलाशभस्माश्मभिदा ग्रंथ्याभे- होगया है उसे वमन विरेचन द्वारा शुद्ध क अर्थ-ग्रंथि संज्ञक शुक्र में ढाकका क्षार रके उसे हींग और खस आदिसे * सिद्ध किऔर पाखान भेद से सिद्ध किया हुआ घृत या हुआ घृत पानकरावै । पान कराना चाहिये । विशेष दृष्टव्य-मूत्रकी कांतिवाला शुक्र पूयशुक्रकी चिकित्सा । सर्वथा असाध्य होता है इसलिये उसकी पूयरेतसि । परूषकवटादिभ्याम् चिकित्सा ही नहीं कही गई है । वातादि ___ अर्थ-पूयशुक्रमें परूषकादि और वटादि । दोष से दूषित स्त्री के शोणित की चिकित्सा गणोक्त औषधोंसे सिद्ध किया हुआ वृत दे दोषानुसार करने का वर्णन पहिले होचुका है ना चाहिये । अब प्रथि आदेिशोणित की चिकित्सा कहतेहैं । क्षीणशुक्रकी चिकित्सा। ग्रंथ्यार्तव की चिकित्सा । क्षीणे शुक्रकरी क्रिया ॥ १४ ॥ ग्रंथ्यातवे पाठाव्योषवृक्षकजं जलम् ॥ १६ ॥ स्निग्धं वांतं विरिक्तं च निरूढमनुवासितम् । अर्थ-ग्रंथि नामक स्त्री के रज में पाठा, योजयेच्छुक्रदोषार्त सम्यगुत्तरबस्तिभिः ॥ अर्थ-क्षीणनामक शुक्रमें अर्थात् शुक्रके त्रिकुटा और कुडा इनका क्वाथ पीवै । क्षीण होनपर वीर्यको बढानेवाली क्रिया क कुणपपूय शोणित की चिकित्सा । रनी चाहिये तथा शुक्र दोषार्त रोगीको स्नेह पेयं कुणपपूयास्ने चन्दनम् वक्ष्यते तु यत् । गुह्यरोगेच तत्सर्व कार्य सोत्तरबस्तिकम् ॥ न, घमन, विरेचन, निरूहण और अनुवासन ___अर्थ-कुणपनामक और पूय नामक देनेके पीछे उत्तरवस्ति का प्रयोग करे। शोणित में लाल चन्दनका क्वाथ पीना चाहिये । तथा गुह्यरोग में जो जो वमनादि x यहां कुणप का सामान्य वर्णन है और योनि में पिच धारणादि यथायोग्य फिर शुक्रका ही ग्रहण क्यों किया गया है इस शंका का यह समाधान है कि प्रथम | _____xआदि शब्दसे संग्रहमें लिखे हुए पाठ तो वीर्यका प्रकरण चला आता है, दूसरे | की सूचना होती है उसमें लिखा है कि हीकुणप शोणित का वर्णन आगे करेंगे, जैसे | ग, खस, चीता, प्रियंगु, मजीठ, और कमल 'कुणपपूयाने, इसलिये यहां शुक्र का ही | नाल से सिद्ध किये हुए घृतमें त्वक्, पला, ग्रहण है । कुणपे पुनः, इसमें पुनः का ग्रहण | चोच, इनके चूर्णकाप्रतीवाप देकर पान कइसलिये है कि बातादि दुष्ट शुक्र में अस्रोत | रावे। किसी किसी पुस्तक में हिंगुसेव्याक्रिया न करनी चाहिये। 'ग्निसाधितम् , ऐसा पाठ भी है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy