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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थान भाषाटीकासमत । (२५५) ग्रंथिसंज्ञक, रक्तपित्त से दूषित पूय (राध) | हुआ मुर्वा और मुलहटीका प्रतीबाप देकर के समान पूयसंज्ञक, तथा वातपित्तसे दृषित | | घृतपान करे । निसोतका चूर्ण घीमें मिलाक होने पर क्षीणता को प्राप्तहुआ शुक्रशोणित | र देनेसे विरेचन करावे । पयस्या और श्रीपक्षीणसंज्ञक होता है। |ी इनसे सिद्ध किये हुए दूधकी आस्थापन शुक्राविका साध्यासाध्य विचार । । वस्ति देवै । मधुक और मुद्रपर्णी इनसे सिद्ध कृच्छ्राण्येतान्यसाध्यंतु त्रिदोषं मूत्रविट्प्रभम् किये हुए तेलकी अनुवासन और उत्तरवस्ति अथे-वातादि संज्ञक से लेकर क्षाण सज्ञक देवे । कफजशनमें पाखानभेद, अश्मंतक औ पर्यंत शुक्रशोणित की चिकित्सा कठिनता र आमला डालकर सिद्ध किया हुआ पीपल से होती है इसलिये ये कृच्छ्र साध्य हैं तथा और मुलहटीके चूर्णका प्रतीवाप देकर घृतमल और मूत्रकी सी आकृतिबाले शुक्रशो पान करावे । मेनफलका काथ पिलाकर वमणित मलसंज्ञक होते हैं, ये त्रिदोष के न करावे ॥ दंती और वायविडंग का चूर्ण दूषित होने के कारण असाध्य होते हैं । तेलमें चटाकर विरेचन करावे | राजवृक्ष बातादिसंज्ञक शुक्रातबकी चिकित्सा। और मेनफल के काथसे आस्थापन वस्ति दे कुर्याद्वातादिभिर्दुष्टे स्वौषधम् मुलहटी और पीपलसे सिद्ध किये हुए तेलकी अर्थ-बातादि दोषोंसे दूषित हुए शुक्र अनुवासन और उत्तरवस्ति दे ॥ शोणितमें उन उन दोषों के शमन करनेका ___ वातज आर्तव दोष में भाडंगी और उपाय करना चाहिये । जैसे कुपित वायुके भद्रदारु से सिद्ध किया हुआ घृतपान कराव प्रशमनके लिये स्निग्ध, उष्ण, अम्ल, और दूध और घृत, सानकर प्रियंगु और तिल लवणादि उपचार करै । पित्तके शमनके लि का कल्क योनि में धरै । सरल वृक्ष और ये मधुर शीत कषायादि, कफके लिये कटु मुद्पणी के कषाय से योनिका प्रक्षालन रूक्ष कषायादि उपचार करे । विशेष करके करे । पित्तज योनिदोष में दोनों काकोली वातज शुक्रदोषमें सुक्त सैंधव और फलाग्ल और विदारीकंदका क्वाथ, अथवा उत्पलपद्म द्वारा सिद्ध जवाखारका प्रतीवाप देकर घृत- का क्वाथ अथवा महुआ के फूल और पान करे । बेलगिरी और विदारीकंद द्वारा | खंभारी के फल का क्वाथ चीनी डालकर सिद्ध किये हुए दूधकी आस्थापन वस्ति देवे। पीवै ।। मधु और देवदारुसे सिद्ध किये हुए तेल की कुणपकी चिकित्सा। अनुवासन वस्ति देवै । क्षीर और कुलीरके रससे सिद्ध किये हुए तेलकी अनुवासन औ| धातकीपुष्पखदिरदाडमार्जुनसाधितम् । कुणपे पुनः ॥ १२ ॥ र उत्तरवस्ति देवै । पित्तजशुक्र में कांडेक्षु, | पाययेत्सर्पिरथवा विपक्वमसनादिभिः १३ गोखरू, गिलोय, इनके काथसे सिद्ध किया | अर्थ-कुणप शुक्र में धाय के फूल, खैर For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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