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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५४) अष्टांगहृदये। अ० १ क और शोणित दूषित हो जाते हैं तब वि- शुकार्तवसंयोगमें गर्मकी अनुत्पत्ति । योनि ( अन्य योनिवाले ) और विकृताका | वातादिकुणपथिपूयक्षीणमलाइवयम् । | बीजासमर्थ रेतोऽस्रम्र ( अनेक आकारवाले ) गर्भ होते हैं। ___ अर्थ-पुरुष का वीर्य और स्त्री का प्रतिमास में रजः स्राव । शोणित ये दोनो वातादि दोष, कुणप, ग्रंथि मासि मासि रजःस्त्रीणांरसजस्रवति व्यहम् पूय, क्षीण और मल इन सब नामों से बत्सराद्वादशावयातिपंचाशतःक्षयम् ७ • अथे-बारह वर्ष की अवस्था से लेकर | अभिहित होते हैं, जैसे वातशुक्र, पित्तशुक हर महिने स्त्रियों के रससे उत्पन्न हुआ रज कफशुक्र, कुणपशुक्र । रक्त के दूषित होने तीन दिन तक निकलता रहता है और | से दुर्गेधित ), ग्रंथिशुक्र, पूयशुक्र क्षीणशुक वहीं रज पचास वर्ष की अवस्था होने के औरमलशुक्र यह दोप्रकारका होताहै मूत्रशुक्र पीछे अपने आप बन्द हो जाता है। और पुरीषशुक्र ) । इसी तरह आतर्व के भी धीर्यवान् संतानोत्पत्ति में कारण । नाम हैं जैसे, वातार्तव, पित्तार्तव, कफातव, पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविंशेन संगता। कुणपार्तव ग्रंथार्तव, पूयार्तव क्षीणातव, और शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्ते शुक्रेऽनिले हृदि ८ ॥ मलार्तव( मूत्रार्तव और पुरीषार्तव)। ऐसे वीर्यवतं सुतं सूते शुक्र और शोणित गर्भ के उत्पन्न करने में - ततो न्यूनाद्वयोः पुनः।। असमर्थ होते हैं। रोग्यल्पायुरधन्योबा गर्भो भवति नैववा९॥ अर्थ-गर्भाशय, अपत्यमार्ग, स्त्रीका रज वातादिदोषजशुक्र का ज्ञान । स्वलिंगैदोषजं वदेत् ॥ १० ॥ पुरुष का वीर्य शुद्ध अर्थात् निर्मल हो, वा रक्तेन कुणपं श्लेष्मवाताभ्यां ग्रंथिसन्निभम् । तादि से दूषित नहों, वायु भी शुद्ध हो अ | पूयाभं रक्तपित्ताभ्यांक्षीणंमारुतपित्ततः ११ र्थात् पित्तादि से आवृत न हो, तथा हृदय | अर्थ-वातादि दोष संज्ञक शुक्र भौर दोषादि से संतप्त न हो ऐसी अवस्था में | शोणित में जिस दोष के लक्षण दिखाई जब स्त्री पूरी सोलह वर्ष की होजाय और दें उसको उसी नाम से जानना चाहिये । पुरुष पूरे बीस वर्ष का होजाय तब स्त्री | जैसे रूक्ष, श्याव और अरुणादि लक्षणों पुरुष के समागम से वीर्यवान् पुत्र का जन्म | से युक्त शुक्र शोणित वातसंज्ञक होता है । होता है। विस्रगंध उष्णादि लक्षणयुक्त शुक्रशोमित इससे कम अवस्थावाले स्त्री पुरुषों के | पित्तसंज्ञक होता है । स्निग्ध, पांडुवर्ण और समागम से जो संतान होती है वह रोगी | पिच्छिलादि लक्षणयुक्त शुकशोणित कफ अल्पायु और दुर्भाग्य होती है अथवा ऐसा | संज्ञक होता है, इसी तरह दुष्ट रक्त से मुर्दे भी देखनेमें आता है कि गर्भ की स्थितिही की समान गंधवाला शुक्रशोणित कुणपसंनहीं होती है। ज्ञक है । कफवात से दूषित ग्रंथिके समान For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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