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(३७६)
अष्टांगहृदय ।
अ२
अर्थ-स्नान और अभ्यंग के पीछे दोष । इस तरह चार महिनेसे आगे सुखपूर्वक आके स्राव और वेदना की शांतिके लिये अज- हार बिहार का सेवन करे । वायन, अतीस, रास्ना, हींग, इलायची,
बलातल । पंचकोल, इनका चूर्ण घृतके साथ, अथवा
वलामूलकषायस्य भागाः षट् पयसस्तथा ।
यवकोलकुलत्थानां दशमूलस्य चैकतः॥ कल्क वा क्वाथ पान कराना चाहिये । फिर
| निःक्वाथभागोभागश्चतैलस्य च चतुर्दश। इसीतरह कुटकी, अतीस, पाठा, स्वरच्छद द्विमेदादारुमंजिष्ठाकाकोलीद्वयचन्दनै ४८ ॥ शाक, दालचीनी, हींग, तेजोवती, इनका सारिवाकुष्ठतगरजीवकर्षभसैंधवैः। भी चूर्ण घृतके साथ, अथवा इनका कल्क
कालानुसार्याशैलेययचागुरुपुनर्नवैः॥ १९॥
अश्वगंधावरीक्षीरशुक्लयष्टीवरारसैः। वा इनका काथ पान करावै । मूढगर्भ के
शताइवाशूपंपण्येलात्वकपत्रैःश्लक्ष्णकल्किसैः निकलने के पीछे तीन दिनतक इस विधि पक्वं मृद्वग्निना तैलं सर्ववातविकारजित् । का पालन करना चाहिये फिर सात दिन सूतिकाबालमर्मास्थिक्षतक्षीणेषु पूजितम् । तक स्नेहपान करावे, सायंकाल के समय
| ज्वरगुल्मग्रहोन्मादमूत्राघातांभवृद्धिजित्।
धन्वंतरेरभिमतं योनिरोगक्षयापहम् ५२ ॥ पूर्वोक्त लक्षण वाला अरिष्ट वा अच्छी रीति
अर्थ-खरैटी की जडका काथ छः भाग से बनाया हुआ आसव पान करावे | सिरस और अर्जुन की छालके क्वाथमें रुई की
दूध छः भाग । जौ, कोल, कुलथी और द. बत्ती भिगोकर योनिमें रक्खे । तथा अन्य
शमूल इनका काथ एक भाग, तेल एक भा ज्वरादिक उपद्रवोंकी शांतिके लिये यथायोग्य
ग, इसतरह सब मिलाकर १४ भाग हुए । उपायों का अबलंवन करै ।
मेदा, महामेदा, देवदारु, मजीठ, काकोली,
क्षीर काकोली, लालचंदन, सारिवा, कूठ,त मूढगर्भाका कर्तव्य ।
गर, जीवक, ऋषभक, सैंधव, उत्पलसारिवा, पयो वातहरैः सिद्धं दशाहं भोजने हितम् ।
शैलेय, वच, अगर, सांठकीजड, असगंध,सि रसो दशाहं च परं लघुपथ्याल्पभोजना।४५ ताबर, क्षीर विदारी, त्रिफला, बोल, शतमूस्वेदाभ्यंगपरास्नेहान्बलातैलादिकान्भजेत्। ली, शूर्पपर्णी, इलायची, दालचीनी, तेजपात ऊर्च चतुभ्यो मासेभ्यःसाक्रमेण सुखानि च ॥
इनको महीन पीसकर कल्क बनालेवै और अर्थ-उपरोक्त बिधिके अनंतर दस दिनतक
उक्त १४ भागोंमें मिलाकर मंदी मंदी आग बातनाशक रास्नादि से सिद्ध किया हुआ दूध | पर पकावै । यह तेल सब प्रकारकी बातव्या. भोजनमें हितकर है | फिर दस दिनतक मां-धि, सूतिकारोग, बालरोग, मर्मगतरोग, असरस का भोजन हित है । इससे पीछे हल- | स्थिगतरोग, क्षतक्षीणरोग, ज्वर, गुल्म, भूका पथ्य और थोडा भोजन देना चाहिये। तोन्माद, मूत्राघात, अंत्रवृद्धि, योनिरोग और तदनंतर स्वेदन और अभ्यंगका सेवन करती। क्षयी इन सबको दूर करता है । यह तैल हुई बलातैलादि स्नेह को उपयोगमें लाती रहे | धन्वंतरि के मतानुकूल है ।
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