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(४०८)
अष्टांगहृदय ।
अ० ११
माध्मामरुस्तभवतीं स वायुः । । और त्रिदोषज, तथा आठवां आर्तव दोषज प्रपीडितोऽतः स्वनवान् प्रयाति।। प्रध्यापयति पुनश्च मुक्तः।३०।।
यह आठवां गुल्म स्त्रियों के अनुसंबंधी अंत्रवृद्धिरसाध्योऽयं वातवृद्धिसमाकृतिः। | शोणित के दूषित होजाने से उत्पन्न __अर्थ-यातको प्रकुपित करनेवाले आ- | होता है । हार तथा अन्य पूर्वोक्त क्षोभनकर्ता कारणों
गुल्मनिदान । से अथवा ठंडे जलमें अवगाहन से, मलमूत्रके ज्वरच्छद्यतिसाराद्यैर्वमनाद्यैश्च कर्मभिः । उपस्थित वेगको रोकने और अनुपस्थित वेः
कर्शितो बातलान्यात शीतं वांबु वुभुक्षितः। गको उदीर्ण करनेसे, भारी बोझ ढोनेसे,
यःपिबत्यनु चान्नानि लंघन प्लवनादिकम् ।
सेवते देहसंक्षोभ छर्दि वासमुदीरयेत् ॥ विषमभावमें देह की प्रवृत्ति से वायु कुपित
अनुदीमुदीर्णान्वा वातादीन विमुंचति । होताहै और जव वायु कुपित होकर छोटी छोटी स्नेहस्वेदावनभ्यस्य शोधनं वा निषेवते ॥ अंत्रों के कुछ अंशों को दूषित करके नीचेको | शुद्धोवाशु बिदाहीनि भजते स्यंदनानि वा । लेजाता है तब ग्रंथि के सदृश वंक्षण की
वातोल्वणास्तस्यमलाः पुथकक्रुद्धा संधियों में सूनन पैदा कर देता है ।
द्विशोऽथवा ॥
सर्वे वा रक्तयुक्ता वामहास्रोतोऽनुशायिनः। इसोको अंत्रवृद्धि कहते हैं । इसकी चिकि
| ऊ धोमार्गमावृत्य कुर्वतेशूलपूर्वकम् ॥ स्सा करने में उपेक्षा करने से कोष वढकर स्पोपलभ्यं गुल्माख्यमुत्प्लुतं ग्रंथिरूपिणम् । फूल जाता है, वेदनायुक्त और स्तमित ___अर्थ-जो मनुष्य ज्वर, वमन, अतिसार होजाता है इसको दावने से वायु शब्द करता
और ग्रहण्यादिक रोगों से पीडित और वमहुआ इधर उधर दौडता है और हाथ हटा लेने | न विरेचन आस्थापनादि कमों द्वारा कर्षित पर फिर आकर सूजन उत्पन्न कर देता है। हो और वातकारक अन्न का भोजन करे अंत्रवृद्धि के लक्षण वातजवृद्धि के समान जो मनुष्य क्षुधा से पीडित हो वह भोजनसे होते हैं । यह व्याधि असाध्य होती है ।
पहिले जलपान करे अथवा देहको क्षोभकारक गुल्म के लक्षण और भेद ।
उपवास करै वा जल में तैरे, जो मनुष्य सक्षकृष्णारुणसिरातंतुजालगवाक्षितः।३१।।
वमन का वेग न होने परभी गले में उंगली गुल्मोऽष्टधा पृथग्दोषैः संसृष्टैर्निचयं गतः।। M
डाल कर वा अन्न चेष्टा द्वारा धमन करे आर्तवस्य च दोषेण नारीणां जायतेऽष्टमः। बातमूत्र और मलका वेग उपस्थित होने ___ अर्थ-सब प्रकार के गुल्मरोग रूक्ष परभी वेगको रोके । जो मनुष्य प्रथम स्नेतथा काली वा नीली सिराओं के जाल से हन और स्वेदन कर्म न करके वमनविरेच. व्याप्त जाल के सदृश होते हैं, ये आठ । नादि संशोधन क्रियाओं को करता है प्रकार के होते हैं, यथा-वातज, पित्तज, । अथवा जो वमनविरेचनादि से शुद्ध होकर कफज, वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज | विदाही वा कफकारक आहार का सेवन
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