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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०११ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । (४०७ ) मुष्की वंक्षणतः प्राप्य फलकोशाभिवाहिनीः। अर्थ-कफजवृद्धि ठंडी, भारी, स्निग्ध, प्रपीड्य धमनीवृद्धि करोति फलकोशयोः। खजलीयुक्त कठोर और अल्पवेदना से युक्त अर्थ-सूजन और शूलको उत्पन्न करने | होती है। वाला कुपित्त वायु अपना मार्ग रुकजाने के रक्तजवाद । कारण एक स्थानसे दूसरे स्थानमें विचरता कृष्णस्फोटावृतः पित्तवृद्धिलिंगश्च रक्ततः हआ वंक्षण से अंडकोषों में पहुंचकर फल ____ अर्थ-रक्तजवृद्धि के चारों जोर काले कोषवाहिनी संपूर्ण धमनियों को अत्यन्त रंग के फोड़े होजाते हैं, इसमें पित्तजवृद्धि पीडित करके फलकोष की वृद्धि करदेताहै । के संपूर्ण लक्षण पाये जाते हैं। . . बृदिरोग की संख्या। दोषास्रमेदोमृत्रैः स वृद्धिः सप्तधा गदः। मेदोजवृद्धि । मूत्रांरजावप्यनिलाद्धेतु भेदस्तु केवलम् । कफवन्मेदसा वृद्धिर्मंदुस्तालफलोपमः । अर्थ-वृद्विरोग सात प्रकार का होता ____ अर्थ-मेदोजबृद्धि कोमल औरं पके है, यथा-वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, | हुए तालफल के सदृश होती है, इनके शेष मेदोज,मूत्रन और मंत्रज । इनमें से मूत्रज लक्षण कफज वृद्धि के समान होते हैं । . वृदि और अंत्रजवृद्धि वायु के प्रकोप से मूत्रजवृद्धि । मूत्रधारणशीलस्य मूत्रजःसतुगच्छतः ॥ ही उत्पन्न होती हैं । इनकी उत्पत्ति के अम्भाभिः पूर्णहतिवन्क्षाभं याति सरुमृदुः हेतु में भिन्नता होने के कारण इनका मूत्रकृच्छमधस्ताच्च वलयम् फलकोशयोः। पृथक् निर्देश किया गया है। ___अर्थ-जो सदा मूत्रके वेगको धारण कबातनवृद्धि के लक्षण । रता है उसके मूत्रज बृद्धि होती है इसरोगी पातपूर्णदृतिस्पर्शो रूक्षो वातादहेतुरुकू । । का अंडकोष चलनेके समय जलसे भरीहुई अर्थ-वातज बृद्धि बिना कारणही वा मशक की तरह थलर थलर करता है । यह थोडे कारण से वेदनायुक्त और रूक्ष होती वेदनायुक्त और मृदु होता है । और इसीसे है और वायु से भरी हुई मश्क की तरह मूत्रकृच्छ भी होजाता है । फलकोषके नीचे फूली हुई होती है। पित्तजवृद्धि। के भागमें कंकण के सदृश आकार विशेष पक्कोदंवरसंकाशः पित्ताहाहोष्मपाकवान् । उत्पन्न होजाता है। . अर्थ-पित्तजवृद्धि पके हुए गूलर के अंत्रजद्धि। फल के समान दाह और गरमी से युक्त हो वातकोषिभिराहारैः शीततोयावगाहनैः । धारणेरणभाराध्वविषमांगप्रवर्तनः।। २८॥ तीहै, यह पकजाती है। क्षोभणः क्षुभितोऽन्यैश्च क्षुद्रांत्रावयवं यदा कफजवृद्धि। | पवनो विगुणीकृत्य स्वनिवेशाधो नयेत् । कफान्छीतो गुरु निग्धः कण्डूमानकठिनो । कुर्याद्वक्षणसांधस्थो ग्रंथ्या श्वयधु तदा । ऽल्परुक।। उपेक्ष्यमाणस्य च मुष्कवृद्धि For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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