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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०११ निदानस्थान भाषाकिासमेत । [४०९ करता है, उसके संपूर्ण वातादि दोष अलग | नाभि, हृदय और दोनों पसलियों में उत्प. अलग, वा दो दो मिलकर अथवा सब एक | म होता है । साथ मिलकर अथवा रक्त से युक्त होकर बातगुल्म के उपद्रव । महास्रोत अर्थात् आमपक्वाशय स्थान में बातान्मन्याशिरःशूलं ज्वरप्लीहांत्रकूजनम् । गमन करे अथवा ऊपर नीचे के मार्गों को | व्यधः सूख्येव विट्सङ्गःवरुछाच्छ्वसमम्आच्छादित करके गुल्मरोग को उत्पन्न करता है । गुल्मरोग हाथसे टटोलने पर मालूम | स्तंभोगात्रे मुखे शोषः कार्य विषमवहिता रूक्षकृष्णत्वगादित्वं चलत्वादनिलस्य च ॥ होजाता है, यह ऊंचा उठा हुआ और गांठ ! अनिरूपितसंस्थानस्थानवृद्धिशवव्यथः। के सदृश होता है । गुल्म के उत्पन्न होने , पिपीलिकाव्याप्त इघ गुल्मःस्फुरति तुद्यते । से पहिले शूलके समान वेदना होती है । ___अर्थ-वातगुल्म में मन्या और मस्तक प्रायः सब प्रकार के गुल्मों में वात की में शूल, तथा ज्वर, प्लीहा, अंत्रकूजन, सुई अधिकता होती है। छिदने की सी वेदना मल का अवरोध, बातगुल्म के लक्षण । श्वासका काठनता से आनाजाना, शरीर में कर्शनात्कफविपित्तर्मार्गस्यावरणेन वा॥ जकडन, मुखमें शोष, कृशता, विषमाग्नि वायुःकृताशयः कोष्ठःरौक्ष्यात्काठिन्यमागतः त्वचा और नख नेत्रादि में रूखापन और स्वतंत्रः स्वाश्रये दुष्टः परतंत्रः पराश्रये । कालापन, तथा वायु के चलत्स्वभाव के पिंडितत्वादमूर्तोऽपि भूतत्वमिबसांश्रतः। कारण गुल्म के स्थान, आकृति, वृद्धि, क्षय गुल्म इत्युच्यते बस्तिनाभिहत्पार्श्वसंश्रयः। और वेदना में सदा नियमरहितता, । ये ___ अर्थ-धातु के क्षीण होजाने से, अथवा सब लक्षण हेते हैं । वात न गुल्म में ऐसा कफ, विष्टा और पित्त द्वारा मार्ग रुकजाने मालूम हुआ करता है कि चींटियों से व्याप्त के कारण वायु कोष्ठ में स्थित होजाता है की तरह स्फुरण करता है और सूचीविद्ध और रूक्षता के कारण कठोर होजाता है । की तरह वेदना से युक्त होता है । यह अपने स्थान अर्थात् पक्वाशय में स्वतंत्र भाव से दुष्ट हो जाता है और पराश्रय अर्थात् पित्तगुल्म के लक्षण । आमाशप में पित्त कफके आधीन होकर | पित्तादाहोऽम्लको मूीविड्भेदस्वेदतृड्ज्वराः । परतंत्र भावमें दुष्ट होजाता है । वायु मू- हारिद्रत्वं त्वगाये बु गुलमज स्पर्शनासहः॥ तिमान् न होकर भी पिंडितत्व अर्थात् गो- दृयते दीप्यते सोष्मा स्वस्थानं दहतीव च। लाकृत गांठ के सदृश होजाने के कारण अर्थ-पितज गुल्म में दाह, खडीउकार मूर्तिमान मालूम होने लगता है । इसको | मूर्छा, पुरीषभेद, स्वेद, सृषा, अर, और ग्रंथकार वातगुल्म कहते हैं लौकिक में यह / त्वचा, मुख, नेत्र, नखों में हलदीकासा पीत वायगोला के नाम से प्रसिद्ध है । यह वस्ति । वर्ण ये सब लक्षण होते हैं । इसमें ऐसी तीत्र For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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