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(४१०)
अष्टांगहृदय ।
अ.११
वेदना होती है, कि हाथ नहीं लगाया जा | सोऽसाध्योसकता है । गरमाई से गुल्मका स्थान, अर्थ-त्रिदोषज गुल्म में तीव्र वेदना उपतप्त, जलता हुआ, लोहे के गोले के | और दाह होता है, यह बहुत जल्दी पकसमान गरम मालूम होता है ।
जाता है, तथा कठोर और ऊंचा होता है, - कफज गुल्म के लक्षण ।
यह असाध्य होता है। कफास्तमित्यमरुचःसदनं शिशिरज्वरः॥
रकज गुल्म की उत्पत्ति । पीनसालस्यहल्लासकासशुक्लत्वगादिताः।
. रक्तगुल्मस्तु स्त्रिया एव प्रजायते ४८ गुल्मोऽवगाढः कठिनो गुरुः सुप्तः
ऋतौवा नवसूतावा यदि वा योनिरोगिणी स्थिरोऽल्परुक् ॥ ४६॥ सेवते वातलानिस्त्री ऋद्धस्तस्याः समरिणः अर्थ-कफज गुल्म में स्तिमिता, अरुचि निरुणद्धयार्त योन्या प्रतिमासमवस्थितम्।
कुक्षि करोति तदूर्भलिंगमाविष्करोति च ॥ अंगमें शिथिलता, शीतज्वर, पीनस, आल
हृल्लासदौहृदस्तन्यदर्शनम् क्षामतादिकम्। स्य, हल्लास, खांसी और त्वचादि स्थानों
अर्थ-रकज गुल्म केवल स्त्रियों केही में सफेदा होती है । कफज गुल्म अवगाढ,
होता है । रजस्वला, अथवा नवप्रसूता स्त्री कठोर, भारी, सुप्त, स्थिर और अल्प वेदना
अथवा योनिरोग वाली स्त्री यदि वातकारक से युक्त होता है ।
अन्नपान का अधिक सेवन करती है तो गुल्म को रुक्करत्व ।
वायु कुपित होकर जो रक्त प्रतिमास में स्वदोषस्थानघामानःस्वे स्वे काले च रुक्कराः
योनि के मुख में अवस्थित होता है उसे प्राय:अर्थ-वातादि जिस जिस दोषका पक्वा
रोक देती है। वह रुका हुआ शोणित शयादि जो जो स्थान है वही वही स्थान
कुक्षि में जाकर गर्भ के चिन्हों को प्रकाउन उन दोषों से उत्पन्न हुए गुल्मों का
शित करता है तथा हल्लास,दौहृद, दुग्धहोता है। और वातादि जिस जिस आत्मीय |
दर्शन, क्षामता और मूर्छादिक भी उत्पन्न काल में कुपित होते हैं उसी उसी वय,
होजाते हैं।
रक्तगुल्मके उपद्रव । अहोरात्रि, मुक्त आदि लक्षणवाले उन उन
क्रमेण वायुसंसर्गात्पित्तयोनितया च तत्५१ दोषों से उत्पन्न हुए गुल्म वेदना करतेहैं । शोणितं कुरुते तस्या वातपित्तोत्थगुल्मजान् द्वंद्वज गुल्म ।
रुस्तंभदाहातीसारतृड्ज्वरादीनुपद्रवान् ॥ यस्तु द्वंद्वोत्था गुल्माः संसृष्टलक्षणाः ४७. गर्भाशये च सुतरां शूलम् दुष्टासृगाश्रये । अर्थ-द्वंद्वज गुल्म तीन प्रकारके होते
| योन्याश्च स्रावदौगंध्यतोदस्यंदनवेदनाः ।। हैं, इनके लक्षण दो दो दोषों के मिलेहुए
___अर्थ-तदनंतर वायु के संसर्ग और होते हैं।
पित्तके कारण से रक्त वातपित्तज गुल्म के त्रिदोषज गुल्म।
विकार अर्थात् वेदना, स्तंभ, दाह, अतीसार सर्वस्तीब्ररुग्दाहः शीघ्रपाकी घनोन्नतः। । तृषा, ज्वर आदि उपद्रब उत्पन्न होजाते
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