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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थान भाषाटीकासमेत । पिटिकादियुक्त के चिन्ह । गोरा और गोरेको काला,सतको असत और योजातशीतपिटिकःशीतांगो वा विदह्यते । असत्को सत देखता है वह आसाम मधु उष्णद्वेषीच शीतार्तःस प्रेताधिपगोचरः २७ होता है। जिसकी आंखों में किसी प्रकारका उरस्यूमा भवेद्यस्य जठरे चाऽतिशीतताभिन्नपुरीषं तृष्णा च यथा प्रेतस्तथैव सः२८ रोग न होनेपर भी चन्द्रमा को बहुरूप वा मूत्र पुरीष निष्ठयतं शुक्रवाप्सु निमजति। लांछनादिरहित ( निष्कलंक ) देखता है वह निष्ठ यूतं बहुवर्ण वायस्य मासात्सनश्यति।। भी मरजाता है। जो जाग्रत अवस्था में भी - अर्थ-जिसके देह में कफसे उत्पन्न राक्षस, गंधर्व, प्रेत, पिशाचादिक को देखता फुसियां होगई हो, अथवा ठंडा शरीर होने | है वा ऐसेही विकृतरूप अन्य प्राणियों को पर भी विदाह हो, जो शीतात होकरभी । देखता है वह मृतःप्राय होता है। गरमी से द्वेष रखता हो, वह मनुष्य मृत्यु अरुंधतियों का चिन्ह । की दृष्टिगत, होजाता है। जिसका वक्षः | सप्तर्षीणांसमीपस्था योनपश्यत्यरुंधतीम्। ध्रुवमाकाशगंगां वा स न पश्यति तांसस्थल गरम, जठर ठंडा, विष्टा फटा हुआ, माम् । और तृषा अधिक हो यह मुर्दे के समान अर्थ - जो मनुष्य सप्त ऋषियों के मंहोता है । जिसका मूत्र, पुरीष, थूक और | डल के पास वाली अरुंधती को नहीं देख वीर्य, जल में डूब जाय वा जिसका थूक सकता है, तथा जो धुव और आकाशगंगा अनेक रंगों से युक्त हो वह एक महिने के | को नहीं देखता है, उसकी मृत्यु उसी वर्षे 'भीतर मर जाता है। में होजाती है। विपरीत चिन्होंका वर्णन ॥ __ श्रोत्रेन्द्रिय में विकृति के चिन्ह । घनीभूतमिवाकाश माकाशमिव यो घनम् ।। मेघतोयौघनिषीणापणववेणुजान् । 'भमूमिव मूर्त व मूर्त चाऽमूर्त वस्थि तम। शणोत्यन्यांश्च या शब्दानसतो नसतोऽपि संजय तेजस्त श्वशुक्लंकृष्णमसच्चसत्। वा ॥ ३४॥ निष्पीडय कणों शृणुयानयोधुकधुकस्वनम् बनेत्र रोग श्चंद्रं च बहुरूपमलांछनम् ॥३१।। बामदक्षांसिगंधर्वोन्प्रेतानन्यांश्चतद्विधान्। अर्थ-जो मनुष्य मेघकी गर्जन, पानी रूपं व्याकृति तश्च यः पश्यति स, नश्यति। की घडघडाहट, अर्थात् जल की तरंगों का - अर्थ-जो मनुष्य अकाश के सदृश प- शब्द, वीणा, पणव, बंशी का शब्द वा वैसे 'दार्थों को घनीभूत अर्थात् ठोस और पृथ्वी ही अन्य शब्द को नहीं सुन सकता है की तरह ठोस पदार्थोको आकाश की तरह । अथवा मेघकी गर्जना आदि उपरोक्त शब्दों देखता है । जो बातादि मूर्तरहित पदार्थेको । के न होने पर भी वैसे शब्द सुने अथवा भूर्तिमान् और अग्नि आदि मूर्तिमान् पर्दार्थों । कानों में उंगली देने पर धुक धुक शब्द को मूर्तरहित देखता है । जो तेजवान् को सुनाई न देता हो, उसकी मृत्यु समीप निस्तेज और निस्तेज को तेजवान्, काले को | समझनी चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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