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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३१६) अष्टांगहृदय । सस्नेहं मूनिधूमो वा मासांतं तस्य जीवितम् | अर्थ-जिसके देह में एक साथही प्राकृत मूर्ध्नि भुवोर्वा कुर्वतिसीमंतावर्तका नबाः॥ वर्ण ( गौरादि ) और वैकृत वर्ण ( नील मृत्यु स्वस्थस्य षड्रातात्रिरात्रादातुरस्यतु। जिवा श्यावामुख पूति सव्यमक्षिनिमजति आदि ) हो नांय तौ मृत्युके सूचक हैं । खगावा मूनि लीयतेयस्य तं परिवर्जयेत्। जिसके देहमें स्थूलता और कुशता, ग्लानि : अर्थ-जिसके सिर वा मुखमें गोवरके और हर्ष, रूखापन और चिकनाई एकसाथ सदृश चिकना चिकना चूर्ण दिखाई दे अ- उत्पन्न हो तो मृत्यु की सूचना होती है । थवा मस्तकमें धूआंसा उठता दिखाई दे। वह जिसकी उंगली खेंचने पर भी न चटकें एक महिने जीता है । जिसके सिर वा भू- वह मरजाता है । जिसकी छींक और खांसी कटियों में सहसा सीमंत वा रोमावर्त उत्पन्न | में अपूर्व शब्द निकलता हो, जिसका श्वास होजाय वह यदि स्वस्थ हो तो छः दिनमें अतिदीर्घ वा अति इस्त्र चलता हो अथवा और रोगी हो तो तीन दिनमें मर जाता है। | जिसके श्वास में दुर्गन्धि वा सुगंधि आती जिसकी जीभ श्याववर्ण, मुख दुर्गधयुक्त,और हो । जिसके देह में स्नान करने परभी और बाई आंख भीतरको गढ जाय अथवा जिस विना किये भी अमानवीय गंध आती हो, के मस्तक पर कौए आदि पक्षी बैठ जांय अथवा जिसके मल, वस्त्र और ब्रणादि में वह त्यागने के योग्य होता है ॥ अमानुषी गंध आती हो वह एक वर्ष के वक्षःस्थलमें रिष्टचिन्ह । | भीतर मरजाता है। यस्य नातानुलिप्तस्य पूर्वशुष्यत्युरो भृशम् यूकादिके चिन्ह । आर्तेषु सर्वगात्रेषुसोऽर्धमासंन जीवति। । | भजंतेऽत्यंगसौरस्याधं यूकामक्षिकादयः । | त्यति वाऽतिवैरस्यात्सोऽपि वर्षे न. अर्थ-स्नातानुलिप्त ( पहिले स्नान किया जीवति ॥ २५ ॥ हुआ फिर चंदनादि लेपन किया हुआ ) सततोष्मसु गात्रेषु शैत्यं यस्यापलक्ष्यते । मनुष्यका संपूर्ण अंग गीला होने पर भी | शीतेषुभृशमौष्ण्यं वास्वेदःस्तंभोऽप्यहेतुकः वक्षःस्थल बहुत शुष्क होजाय वह पन्द्रह अर्थ-देहकी अत्यन्त सुरसता के कारण दिन भी नहीं जीता है। जिसकी देह में जू वा मक्खियां बैठती हों __आकस्मिक रिष्टचिन्ह । अथवा अत्यन्त विरसता के कारण देह पर अकस्मागुगपगात्रे वर्णी प्राकृतवैकृतौ ॥ २१ न बैठती हों तो वह एक वर्ष के भीतर तथैवोपचयग्लानिरौक्ष्यस्नेहादि मृत्यवे ।। मरजाता है । जिसके निरंतर उष्णदेह में यस्य स्फुटयुरंगुल्यो नाकृष्टा न सजीवति ॥ ठंडापन, और ठंडे देहमें उष्णता होजाय क्षवकासादिषु तथा यस्याऽपूर्वोध्वनिर्भवेत्। अथवा बिनाही कारण एक साथ पसीने हस्वो दीर्घोऽति वोच्छ्वासःपूति सुरभिरेव . वा ॥२३॥ | आने लगे अथवा पसीनों का आना बन्द आप्लुतानाप्लुते कायेयस्यगंधोऽतिमान होजाय तो ऐसा मनुष्य भी वर्ष दिनसे अमलवस्त्रवणादौ वा वर्षांतं तस्य जीवितम ॥ 'धिक नहीं जीता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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