SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थान भाषाटीकासमेत । - ऊ द्वितीयः स्यातां वा पकवूनिभाबुभौ॥ । छिद्रोंसे विष प्रयोगके किनाही धिर निक. दताःसशर्कराःश्यावास्ताम्राःपुष्पितपकिताः | लला हो । जिसकी पंजनानेन्द्रिय ऊपरको उ. सहसैव पतेयुजिवा जिह्मा विसर्पिणी॥ ठ गई हो और अंडकोष नीचेको लटक पडे श्वेता शुष्का गुरुश्यावा लिप्ता सुप्ता सकंटका। हों अथवा इससे विपरीत पुंजननेन्द्रिय नीचे अर्थ-जिसका नीचेका ओष्ठ नीचे को को लटक पडी हो और अंडकोष सुकर गये चला जाता है और ऊपर का ओष्ठ ऊपर हो ऐसे मनुष्यको कालप्रेरित अथवा आसको चला जाता है और दोनों पके हुए जा- नमृत्यु समझना चाहिये । मन के सदृश रंगवाले होजाय । जिसके दां- ललाटादिमें रिष्टचिन्ह । त शर्करायुक्त , श्याववर्ण वा ताम्रवर्ण. प. | यस्याऽपूर्वाः सिरालेखा बालेद्वाकृतयोऽपिपित ( श्वेत चिन्हों से युक्त ) और पंकिंत वा ॥१४॥ ललाटे बस्तिशीर्षे वा षण्मासान सजीवति। (कीचसे ल्हिसे हुए के सदृश ) होजाय वा पद्भिनीपत्रवत्ताय शरीरे यस्य देहिनः१५॥ बिना ही कारण गिर पडें । जिसकी जिह्वा प्लवतेप्लवमानस्य षण्मासंतस्य जीवितम् । टेढ। पड जाय, अति चंचल, श्वेतवर्ण,शुष्क, अर्थ-जिसके ललाट पर अथवा वस्तिके भारी, श्याववर्ण, लिप्त, रसज्ञान से रहित हो | ऊपरवाले भाग पर अपूर्व ( जो पहिले न हुई जाय वा जीभपर कांटे पड जाय तो उस | हो ( नसोंकी रेखा अथवा द्वितीयाके चन्द्रमा मनुष्य को मृत्युसे स्वीकृत समझना चाहिये। के सदृश टेढी आकृतिवाली नसोंकी रेखा शि(आदिमें रिष्टचिन्ह । दिखाई देने लगी हों । वह छः महिने में मृशिरः शिरोधरा कोडं पृष्ठं वा भारमात्मनः ११ / त्यु का प्रास होजाता है अथवा स्नान करने । हनूवा पिंडमास्यस्थं शक्नुवंति न यस्य च । के समय देह पर डाला हुआ पानीऐसे लु • यस्यानिमित्तमंगानि गुरुण्यतिलघूनि वा ॥ क जाय जैसे कमल के पत्तेपर से लुढक विषदोषादिना यस्य खेभ्यो रक्त प्रवर्तते ।। उत्सितं मेहनं यस्य वृषणावतिनिःसृतौ ॥ जाता है वह भी छ:महिने ही में मरजाता है । अतोऽन्यथा वा यस्य स्यात्सर्वे ते सिरादिमें रिष्टचिन्ह । कालचोदिताः। हरिताभाः सिरा यस्य रोमकूपाश्च संवृताः अर्थ-जिसकी ग्रीवा सिरके वोझको न सं | सोऽम्लाभिलाषी पुरुषः पित्तान्मरणमश्नुते भाल सकती हो । जिसकी पीठ अपने वा ग्री- अर्थ-जिसकी सिरा हरे रंगकी होजाती वा के बोझको न संभाल सकती हो, जिस | हैं और रोमकूप रुक जाते हैं । वह मनुष्य खकी हनु मुखमें रक्खे हुए प्रासको धारण क- टाई खानेकी इच्छा करता हुआ पित्त रोगसे रने में असमर्थ होगई ह। । जिसके अंग बि- मृत्यु को प्राप्त होता है | ना कारण ही कभी बहुत भारी और कभी | मूर्धादिमें रिष्टचिन्ह । बहुत हलके होजाते हों, जिसके रोमकूपों वा | यस्य गोमयचूर्णाभं चूर्ण मूर्ध्नि मुखेऽपि वा। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy