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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ३१८ ) www. kobatirth.org अष्टांगहृदय । गंधादि विपर्यय चिन्ह | घरसस्पर्शान् मन्यते यो विपर्ययात् ॥ सर्वशो वा न यो यश्च दीपगंधं न जिघ्रति । विधिना यस्य दोषाय स्वास्थ्यायाविधि - ना रसाः ॥ ३६ ॥ यः पांसुनेव कीर्णागो योऽगघातं न वेति वा । अन्तरेण तपस्तीव्रं योगं वा विधिपूर्वकम् ३७ जानात्यतींद्रियं यश्च तेषां मरणमादिशेत् । अर्थ-जो ऊपर कहे हुए मेघादि के शब्द की तरह गंध, रस और स्पर्श के विपरीत भाव को मानता है अर्थात् सुगंध को दुर्गंध और दुर्गंध को सुगंध । खट्टे को मीठा और मीठे को खट्टा । कोमल को कठोर और कठोर को कोमल, ठंडे को गरम और गरम को ठंडा, चिकने को रूखा और रूखे को चिकना मानता है अथवा जिसको तत्काल वुझे हुए दपिक की गंध मालूम नहीं होती है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रयुक्त किये हुए रसों से रोग की वृद्धि हो और विधिरहित प्रयुक्त किये हुए रसों से आरो“म्य हो, जिसको अपना अंग धूल से लिपटा हुआ मालूम होता है, जो शरीर पर लगी हुई चोट को नहीं जानता है । इसी तरह जो बिना उप्रतप के वा विना विधिपूर्वक योग के इन्द्रियों से अगम्य योगादि विषयों को जानता है । ये सब मृत्यु के समीप होते हैं । स्वरविकृति का निरूपण । होनो दीनः स्वरोऽव्यक्तो यस्य स्याद्गद्गदोऽपि वा ॥ ३८ ॥ सहसा यो विमुद्वा विवक्षुर्न स जीवति । स्वरस्य दुर्बलीभावंहाविं दा स्वर्णयोः ३९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म ५ रोगवृद्धिमयुक्त्या च दृष्ट्वा मरणमादिशेत् । अवस्वरं भाषमाणं प्राप्तं मरणमात्मनः ४० श्रोतारं चास्य शब्दस्य दूरतः परिवर्जयेत् । For Private And Personal Use Only अर्थ - जिस मनुष्य का स्वर बिना कारण ही हीन, दीन, अव्यक्त ( अस्पष्ट ) और गदगद ( घरघराहट युक्त ) होजाय, जो बोलने की इच्छा करै और बोला न जाय वह मृत्यु के निकट होता है । जिसका स्वर दुर्बल हांजाय, बल और वर्ण क्षीण होजाय और बिना कारण ही जिसको रोग की वृद्धि हो उसे मृतःप्राय समझना चाहिये । जो मनुष्य अपने मुख से ऐसे अपशब्द कहता हो कि में अब मरूंगा, में अब न बचूमा तथा रोगी के ऐसे शब्दों को सुननेवालों को भी वैद्य दूर से त्याग देवै । I छायाश्रय रिष्ट के चिन्ह | संस्थानेन प्रमाणेन वर्णेन प्रभयाऽपि वा४१ छाया विवर्तते यस्य स्वप्नेऽपि प्रेत एव सः। अर्थ - जिस मनुष्य की छाया संस्थान प्रमाण, वर्ण वा प्रभा से विकृत भाव में दिखाई दे तो उसे स्वप्न में भी मरा हुआ समझना चाहिये । संस्थान से जैसे जो शरीर का संस्थान विषम हो और छाया सम दिखाई दे वा सम संस्थान में विषम दिखाई दे तो रिष्ट जानना चाहिये । प्रमाण से - . यथा जो लंबे शरीर की छाया छोटी और छोटी की बडी दिखाई दे तो रिष्ट जानना चाहिये । वर्ण से - जैसे नाभसी छाया आग्नेयी | और आग्नेयी छाया नाभसी दिखाई दे । प्रभा से - जैसे जैसी प्रभा हो उसके विप रीत दिखाई देतो मरा हुआ समझना चाहिये ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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