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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६२०) अष्टांगहृदय । अ० ६५ । अन्य घत । का चूर्ण बनाकर गोमूत्र के साथ पानकरै । चतुर्गुणे जले मूत्रे द्विगुणे चित्रकात्पले ।। विरेचन के पीछे पेया पान कराके जांगल कल्के सिद्धं धूतप्रस्थं सक्षारं जठरी पिवेत् ॥ मांसरस के साथ भोजन करावै। तदनंतर छः - अर्थ-घी एक प्रस्थ, जल चार प्रस्थ, दिन तक त्रिकुटा डालकर औटाया हुआ दूगोमूत्र दो प्रस्थ इनमें एक पल चीता पिसा ध पीनेको दे। इस तरह बार बार करने से हुआ मिलाकर पकावै । इस घृत में जवाखार सब प्रकारके उदररोग यहां तक कि संजात. मिलाकर सेवन करने से जठररोग शांत जलोदर भी नष्ट होजाता है । होजाते हैं। ___ गवाक्षादि चूर्ण। अन्य धी। गवाक्षीशंखिनी दंतीतिल्वकस्यत्वचंबचाम् । यवकोलकुलत्थानां पंचमूलस्य चांभसा। पिवेत्कर्कधमृद्वीकाकोलांभोमूत्रसीधुभिः॥ सुरासौवारकाभ्यां च सिद्धं वा पाययेद्धृतं ।। अर्थ-इन्द्रायण, शंखनी, दंती, लाधी अर्थ-जौ, बेर, कुलथी और पंचमूल का | छाल और वच इनके चूर्ण को बेर, दाख, काथ, सुरा और सौबीर इनके साथमें पकाया | वडवेरी, मूत्र और सीधुके साथ पान करै । हुआ घी हितकारी होता है । घृतपान के पीछे विरेचन । नारायण चूर्ण। यवानी हपुषाधान्यं शतपुष्पोपकुंचिका। एभिः स्निग्धाय संजाते वले शान्ते च मारुते कारवी पिप्पलीमूलमजगंधा शठी वचा ॥ सस्ते दोषाशये दद्यात्कल्पदृष्टं विरेचनम् ॥ चित्रकाजाजिकं व्योषं स्वर्णक्षीरी फलत्रयम् अर्थ-इन ऊपर कहे हुए स्नेहपान से द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपंचकम् ॥ रोगीके स्निग्ध होनेपर उसके देहमें बल आने विडंगं च समांशानि दंत्या भागत्रयं तथा। पर वायुके शांत होनेपर और दोषाशय के त्रिबृद्विशाले द्विगुणे सातला च चतुर्गुणा ॥ शिथिल होनेपर कल्पस्थान में कहा हुआ एष नारायणो नाम चूर्णो रोगगणापहः । नैनं प्राप्याभिवर्धते रोगा विष्णुमियासुराः॥ विरेचन देना चाहिये ।। तफ्रेणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदरांबुना। अन्य चूर्ण । आनाहवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया ॥१८॥ पटोलमूलं त्रिफलां निशां वल्लं च कार्षिकम् | दधिमंडेन विट्संगे दाडिमांभाभिरर्शसैः। कंपिल्लनीलिनाकुंभभागान् द्वित्रिचतुर्गुणान् परिकर्ते सवृक्षाम्लैरुणांबुभिरजीर्णके ॥ पिवेत्संचूर्ण्य मूत्रेण पेयां पूर्व ततो रसैः। । भगंदरे पांडुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे । विरक्तो जांगलैरद्यात्ततः षइदिवसं पयः॥ हृद्रोगे ग्रहणीदोषे कुष्ठे मंदेऽनले ज्वरे ॥ शृतं पिवेद्वयोषयुतं पीतमेवं पुनःपुनः। दंष्टाविष मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे । हंति सर्वोदराण्येतच्चूर्ण जातोदकान्यपि ॥ | यथार्ह स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ॥ अर्थ-पर्वलकी जड, त्रिफला, हलदी, वा अर्थ अजवायन, हाऊवेर, धनियां, सोंफ बायविडंग, प्रत्येक एक कर्ष, कवीला दो कर्ष, | कालाजीरा, कारवी, पीपलामूल, अजमोद, नीलिनो तीन कर्ष, निसोथ ४ कर्ष, इन सब | कचूर, वच, चीता, सफेदर्जारा, त्रिकुटा, स्व For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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