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अ. १५
चिकित्सितरथान भाषाटीकासमत ।
. (६२१)
र्णक्षीरी, त्रिफला, जवाखार, सज्जीखार, पु. पीपल इनका चूर्ण बनाकर अनार का रस, करमूल, कुडा, पांचों नमक और वायविडंग | त्रिफला का क्वाथ, मांसरस, गोमुत्र वा गुनप्रत्येक समान भाग, दंती तीन भाग, नि- गुना पानी इनमेंसे रोगानुसार किसी एक के सोथ और इन्द्रायण दो दो भाग, सातला ४ साथ पान करावै । यह चूर्ण सब प्रकारके भाग, इन सवका चूर्ण नारायण चूर्ण कहा- गुल्मरोग, प्लीहा, सब प्रकारके उदररोग, ता है, यह सव रोग समूहों को दूर करदेता श्वित्रकुष्ट, अजीर्ण, शिथिलता, विषमाग्नि है इसके मिलजाने पर रोग ऐसे नहीं बढते । शोफ, अर्श, पांडुरोग, कामला, हलीमक हैं, जैसे विष्णुके मिलनेसे असुर । यह चूर्ण इन रोगों में विरेचन द्वारा वात, पित्तं और उदररोग में तक्रके साथ, गुल्मरोग में वेरके | कफको शांत करताहै। . . जलके साथ, आनाह वातमै सुराके साथ, नीलिन्यादिक चर्ण । वातरोग में प्रसन्ना के साथ, पुरीष बिबंध में नीलिनी निचुलं व्योष क्षारौ लवणपंचकम् । दधिमंड के साथ, अर्शमें अनारके रसके चित्रकं च पिबेच्चूर्ण सर्पिषोदरगुल्मनुत् ॥ साथ, परिकर्तिका में वृक्षाग्ल के साथ, अ- अर्थ-नीलिनी, जलवेत्, त्रिकुटा, जवाजीर्ण में गरम जलके साथ, पीना चाहिये। खार, सज्जीखार, पांचोनमक, और चीता तथा भगंदर, पांडुरोग, खांसी, श्वास, मल- इनका चूर्ण बनाकर तृतके साथ सेवन करै ग्रह, हृद्रोग, ग्रहणी दोष, कुष्ठ, मंदाग्नि, ज्वर- तो उदररोग और गुल्मरोग जाते रहते है । दंष्ट्राविष, मूलविष,गररोग,कृत्रिमविष,इन रोगों उदररोग में दुग्धपान ॥ में यथायोग्य स्नेहके प्रयोगसेकोष्ठ को स्निग्ध
| पूर्ववच्च पिबेदूदुग्धं क्षामः शुद्धोऽतरांतरः। करके विरेचन औषधका पान कराना चाहिये
कारभं गव्यगाज वा दद्यादात्ययिके गदे ॥
हम स्नेहमेव विरेकार्थे दुर्बलेभ्यो विशेषतः। हपुषादि चूर्ण ।
__ अर्थ-पूर्वोक्त पटोलमूलादि चूर्णके साथ हपुषां कांचनक्षीरी त्रिफलां नीलिनीफलम् ।।
पकाया हुआ दूध पान कराके विरेचन त्रायती रोहिणी तिक्तां सातलां त्रिवृतां
वचाम् ॥ २२॥
करावै, इसतरह क्षाम और शुद्ध होनेपर सैधवं काललवणं पिप्पली चेति चूर्णयेत् । जांगल मांसरसके साथ भोजन करावै, फिर दाडिमत्रिफलामांसरसमूत्रसुखोदकैः॥ बीच बीचमें हथनी का दूध वा गौ का द्ध पेयोऽयं सर्वगुल्मेषु प्लीह्नि सर्वोदरेषु च ।
वा बकरी का दूध देतारहै । जो रोग भयाश्वित्रे कुष्ठेष्वजरके सदने विषमेऽनले ॥ शोफार्शः पांडुरोगेषु कामलायां हलीमके।। नक हो तो विरेचन के लिये स्नेह का प्रयोग वातपित्तकफांश्चशु विरेकेण प्रसाधयेत् ॥ कर । यदि रोगी दुर्बल हो तो विशेषरूपसे
अर्थ-हाऊबेर, स्वर्णक्षारी, त्रिफला, । घतपान कराना चाहिये। नीलिनी, त्रायंती, हरड, कुटकी, सातला,
। अन्य चर्ण । निसौथ, बच, सेंधानमक, कालानमक, और हरीतकीसूक्ष्मरजा प्रस्थयुक्तं घृताढकम् ॥
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