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अष्टांगहृदये |
(२६ )
अर्थ-जिस स्थान में सुशीतल दक्षिणका वायु मन्द मन्द बहताहो, जिसके चारों ओर जलकी नालियां बहती हों, जहां किसी जगह वृक्षोंकी शाखा प्रशाखाओं में होकर सूर्यकी किरणें पढ़तीहों अथवा विलकुलही न पड़ती हों, जहां वजू मरकतादि मणियोंकी कांतिके समान झिलमिलाहट करनेवाली सचिक्कण शिला पड़ीहों, जहां कोकिलोंके समूह कुहू कुहू शब्द करते हुए मधुर गान कर रहे हों, जहां कामकेलिके उपयुक्त सुन्दर भूमिहीं, जहां अनेक प्रकार के मनोहर पुष्पोंके वृक्ष सुशोभित हो रहेहौं और जिनकी सुगन्धिसे संपूर्ण उपवन महक रहाहो ऐसे उपवन में राग द्वेषादिसे रहित अनेक प्रकारकी आमोद प्रमोद जनक वातें करताहुआ मध्यान्ह कालको आनन्दसे व्यतीत करै ।
बसंत में त्याज्य रस | गुरुशीत दिवास्वमस्निग्धाम्लमधुरांस्त्यजेत् । अर्थ - इस वसंत ऋतु में गुरु, शीतल, स्निग्ध, अम्ल और मधुर रसका सेवन तथा दिनमें सौना त्याग देना चाहिये ।
ग्रीष्मचर्या ।
तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुग्रमे संक्षिपतीय यन् प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते । अतोऽस्मिन्पटु टुलव्यायामा र्क करांस्त्यजेत्
अर्थ - ग्रीष्म ऋतु में सूर्यदेव जगत के स्नेहपदार्थ अर्थात् सारांश को हरने के निमित्तही अत्यन्त तीक्ष्ण किरणों द्वारा पृथ्वी पर उतरते हैं । इसी से प्रतिदिन कफ का नाश और वायु की वृद्धि होती है । इसी से इस काल में तिक्त, कटु और अम्ल रसों
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धूप
का परित्याग उचित है तथा कसरत करना में चलना फिरना छोड़ देना चाहिये । ग्रीष्म के कर्तव्य कर्म भजन्मधुरमेवान्नं लघु स्निग्धं हिमं द्रषम् । सुशीतत्तोय सिक्कांगोलिह्यात्स क्लून सशर्करान मद्यं न पे पेयं वा स्वल्पं सुवहु वारि वा । अन्यथा शोकशैथिल्यदाहमोहान् करोतितत् अर्थ - इस ग्रीष्मकाल में मधुर, अन्न तथा हलका, स्निग्ध, ठंडा और द्रव पदार्थ
सेवन करना चाहिये | टंडेजल से स्नान कर के जलमें घोलकर शकर डालकर पीना सत्तू
चाहिये ।
इस ऋतु मद्यपान निषिद्ध है, वातकफ प्रकृति वाले को वातके क्षयके लिये पीना ही पडे तो बहुतसा जल मिलाकर बहुत थोडा पीना चाहिये । इस के विपरीत आचरण करने से शोध ( सूजन ) शैथिल्य ( देह में शिथलता ) दाह और अज्ञानता उत्पन्न होते हैं ।
ग्रीष्म का भोजन |
कुंदे दुधवलं शालिमश्नीया जांगलैः पलैः । अर्थ - कुंद के फूल और चन्द्रमा के समान सफेद शालीचांवल बनके पशुपक्षियों के मांस के साथ खाना चाहिये । म में पान विधि |
पिवेद्रसं नातिघनं रसालां रागखांडवौ ३० पानकं पंचसारं वा नवमृद्भाजनस्थितम् । मोचचोचदलैर्युक्तं साम्लंमृन्मयशुक्तिभिः ३१ अर्थ- -न बहुतगाढा न पतला मांसरस, रसाला, राग, खांडब, और पंचसार नामक पानक मिट्टी के नये पात्र में भरकर अम्लरस
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