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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । अ. ३ ': अतीस, पाठा, कुटकी, मोथा और कूट इन अथै-दोष, रोग, दोषकी अधिकता, का काढ़ा पान करावे । | दोषका स्थान इनके अनुसार देश और काल पाठादि का प्रयोग । की विवेचना करके औषध का प्रयोग करना. पाठाशुंठयमृतातिनतिक्तादेवाहसारिवाः । चाहिये । समुस्तमूर्चेद्रयवाः स्तन्यदोषहराः परम्२५ बालक की चिकित्सा । अर्थ-पाठा, सोंठ, गिलोय, चिरायता, तएव दोषादृष्याश्चज्वराद्याव्याधयश्चयत् कुटकी, देवदारु, अनन्तमूल, मोथा, मूर्वा और अतस्तदेव भैपज्य मात्रा त्वस्य कनीयसी। इन्द्रजी ये स्तनों के दूध का दोष हरनेवाली | सौकुमार्याल्पकायत्वात्सर्वान्नामुपसेवनात् परमोत्तम औषध हैं। ___ अर्थ-युवा आदि व्यक्तियों के जो वाअनुबंधानुसार चिकित्सा । | सादि दोपहैं, रसादि दूष्यहै, ज्वरादि रोगहैं अनुबंधे यथाव्याधि प्रकुर्वीत कालवित् । | वेही दोष, वेही दृष्य, वेही ज्वगदिरोग वा. अर्थ-व्याधिके अनुबंध देशकालानुसार लक के भी होते हैं, इस लिये वालक को भी चिकित्सा करना उचित है। वही औषध देना चाहिये जो ज्वरादि प्रकरदंतोद्भेदको रोगोंका हेतुत्व । णों में अलग अलग कही गई है । परन्तु. दंतोद्भेदश्च रोगाणां सर्वेषामपि कारणम् । बालक का देह कोमल और शरीर छोटा विशेषाजरविइभेदकासच्छर्दि शिरोरुजाम् अतिस्पंदस्य पोथक्या विसर्पस्य च जायते होताहै और वह सब प्रकार के अन्न सेवन अर्थ-दांतोंका निकलना सब रोगोंका | नहीं कर सकताहै, इसलिये उसको युवा कारण है । इसमें विशेष करके अर, मलका की अपेक्षा हूस्वमात्रा देना चाहिये । फटना, खांसी, वमन,सिरका दर्द, अतिस्पंदन बालकों को मृदुवमन । पोथकी ( नेत्ररोग विशेष , और विसर्प ये स्निग्धा एव सदा बाला घृतक्षीरनिषेवणात् उपद्रव उपस्थित होते है । सद्यस्तान्वमनं तस्मात्पाययेन्मतिमान् मृदु दंतोद्भवमें पीडा पर दृष्टांत । अर्थ-धी दूधका सदा सेवन करते रहने पृष्ठभंगे बिडानां वहिणां च शिखोद्गमे। से बालक सदा ही स्निग्ध हुआ करते हैं, तोद्भवे च बालानां नहि किचिन्न दूमते २८ इसलिये वद्धिमान बैद्यको उचित है कि वा अर्थ-बिल्ली की पीठके टूटने में, मोर लकको शीघ्रही मृदुवमन पान करावै । इस की शिखाके उपमने में और बालक के दांत कहने का तात्पर्य यह है कि वमनसे पहिले निकलने पर संपूर्ण देहमें पीडा हुआ स्नेहन की आवश्यकता नहीं है । करती है । स्तन्यतृप्त को वमन । दोषानुसार प्रयोग । यथादोष यथारोगं यथोकं यथाशयम । स्तन्यस्य तृप्तं वमयेत् क्षीरक्षीरान्नसेविनम् विभज्यदेशाकालादस्तित्रयोज्यभिषाग्जितम् ! अर्थ-दूध पीनेवाले तथा दूध और अन For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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